गुरु जाम्भोजी और रणधीर जी के मध्य कुछ प्रश्न उत्तर और वार्तालाप हुए, रणधीर जी को बहुत सारी बातें Bishnoi Samaj में समझ नहीं आयी तथा उनके अन्य बातों पर भी प्रश्न थे।
उन सभी प्रश्नो को हमने यहाँ आपको दिया है, मुझे भी इसी तरह के प्रश्न थे मुझे इस से मेरे बहुत सारे प्रश्नो के जवाब मिल गए है।
प्रश्न 1. हे गुरुदेव ! आपका आगमन इस संसार में किस हेतु से हुआ है? यह बतलाने की कृपा करे और साथ ही साकार रूप धारण करके संसार में प्रकट होने का कारण बताये?
उत्तर – भगवान बोले- रणधीर | मेरा इस संसार में साकार रूप से प्रकट होने का कारण मेरे अन्तरंग भक्त प्रहलाद को दिया गया वरदान है। उस वरदान को पूर्ण करने के लिए यहाँ संसार में प्रकट हुआ हूँ।
प्रश्न 2. रणधीर ने पूछा- गुरुदेव ! प्रहलाद कौन था ? और उसको वरदान क्यों देना पड़ा ?
उत्तर- भगवान बोले- रणधीर ! प्रहलाद हिरण्यकश्यपु का पुत्र था। वह बचपन से ही मेरी भक्ति करने लग गया। यह देखकर हिरण्यकश्यपु ने मना किया कि विष्णु की भक्ति नहीं करेगा, क्योंकि विष्णु हमारा शत्रु है। प्रहलाद अपने पिता की बातों को न मानकर मेरी भक्ति करता ही रहा। राक्षस राज हिरण्यकश्यपु ने भक्त प्रहलाद को मारने के अनेक उपाय किये पर सफल नहीं हो सके।
एक दिन स्वयं हिरण्यकश्यपु अपने हाथ में खड़ग लेकर प्रहलाद को मारने के लिए उनके पास आया और बोला कहाँ है तेरा परमात्मा ? मैं देखूं कि वो तेरी रक्षा कैसे करता है ?
अपने पिता की बात सुनकर प्रहलाद बोला- पिताजी ! मेरा परमात्मा तो सर्वत्र है। वे आप में, मेरे अन्दर, और आपके हाथ में जो खड़ग है उसी में भी तथा खम्भे में भी मौजूद है।
अपने पुत्र की बात सुनकर राक्षसराज ने खम्भे पर प्रहार किया। तब मैं खम्भे से प्रकट हुआ और हिरण्यकश्यपु को मारकर भक्त प्रहलाद को वरदान मांगने को कहा। तब प्रहलाद ने वरदान मांगा प्रभु ! मेरे जितने अनुयायी है उन सब जीवों का कल्याण हो। रणधीर ! तब मैंने वरदान दिया कलियुग में अवतार लेकर तेरे शेष जीवों का उद्वार करूँगा उस वरदान को पूरा करने के लिए मैं यहां प्रकट हुआ हूँ।
प्रश्न 3. गुरुदेव ! हिरण्यकश्यपु भक्ति का विरोध क्यों करता था ?
उत्तर – रणधीर ! हिरण्यकश्यपु पहले बैकुण्ठ में मेरा द्वारपाल था। सनकादि के शाप से उसको राक्षस होना पड़ा इसलिए मेरी भक्ति का विरोध करता था।
प्रश्न 4. गुरुदेव ! सनकादि कौन थे उन्होंने बैकुण्ठ में जाकर आपके द्वारपालों को शाप क्यों दिया ?
उत्तर – प्रभु बोले ! चारों सनकादि ऋषि ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनको ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना करने का आदेश दिया। जब सनकादि चारों भाई मेरी तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर मैंने वरदान मांगने को कहा। तब उन चारों भाइयों ने पांच वर्ष के से रहने का वरदान मांगा। जब मैंने उन्हें वरदान दे दिया। तब से ये चारों ऋषि मेरा गुणगान करते हुए सर्वत्र विचरण करते थे।
एक दिन वे चारों ऋषि बैकुण्ठ में आये। वहाँ जय और विजय नामक मेरे दोनों द्वारपालों ने बैकुण्ठ में प्रवेश करते हुए सनकादिको को रोक दिया तब अपना अपमान व द्वारपालों की अयोग्यता समझकर सनदादिकों ने शाप देते हुए कहा तुम लोग बैकुण्ठ में रहने के योग्य नहीं इसलिए मृत्यु लोक में जाकर राक्षस बन जाओ। सनकादिकों के शाप के कारण वे दोनों दीती के गर्भ से राक्षस के रूप में जन्मे और शाप को याद करके मेरा विरोध करने लगे।
प्रश्न 5. भगवन् ! शाप तो सनकादिकों ने दिया और विरोध आपका करने लगे इसका क्या कारण है स्पष्ट रूप से कहिये ?
उत्तर – भगवान बोले. रणधीर ! उन दोनों ने मेरे से जब यह निवेदन किया कि प्रभु हमें शाप से छुटकारा कैसे मिलेगा ? ताकि आपके दुबारा द्वारपाल बने। मैंने उन दोनों से कहा यदि तुम मृत्यु लोक में जाकर मेरी भक्ति करोगे तो सात जन्म लेने होंगे और शत्रुता की तो केवल तीन ही जन्म में मेरे पास आ जाओगे।
इस बात को याद करके वे मेरे से शत्रुता करने लगे। प्रहलाद मेरा भक्त है, यह जानकर हिरण्यकश्यपु उससे भी विरोध करने लगा अर्थात् उसे मारने लगा तब मैंने उसकी रक्षा की तथा वरदान दिया। उस वरदान को पूरा करने के लिए मेरा आगमन हुआ है।
प्रश्न 6. भगवन् ! आपके दो द्वारपाल थे उनमें से आपने एक का ही वर्णन किया। प्रभु! दूसरे के बारे में भी बताइये ?
उत्तर – रणधीर ! एक के बारे में तो तुमने सुन ही लिया। अब तुम दूसरे हिरण्याक्ष के बारे में सुनो। हिरण्याक्ष बड़ा बलवान था। इसने पृथ्वी की शक्ति को अपने अधीन कर लिया तथा पूरे संसार के लिए संकट बन गया। तब मैंने ही वराह अवतार लेकर इसका उद्धार किया।
प्रश्न 7. प्रभु ! आपके द्वारपालों ने कौन-कौन से तीन जन्म लिये ?
उत्तर – रणधीर उन्होंने सबसे पहले हिरयाक्ष व हिरण्यकश्यपु के रूप में जन्म लिया। फिर रावण तथा कुम्भकरण के रूप में तत्पश्चात शिशुपाल व दंतवक्र के रूप में जन्म लिया। इस तीसरे जन्म के पश्चात वे मेरे पास बैकुण्ठ में आ गये।
प्रश्न – 8. गुरुवर ! आपने जब पंथ प्रारम्भ किया उस समय आपने लोगों को क्या उपदेश दिया ?
उत्तर – रणधीर ! उस समय मैंने बीस और नौ नियमों का उपदेश किया जो आप सब लोग मानते है। वे नियम इस प्रकार है-
(1) तीस दिन तक सुतक रखना
(2) पांच दिन ऋतुवन्ती स्त्री को गृहकार्य से पृथक रहना
(3) प्रतिदिन सुबह जल्दी स्नान करना
(4) पूर्ण रूप से शील का पालन करना (एक पति व्रत)
(5) पूर्णरूपेण संतोष रखना
(6) बाहर और भीतर की पवित्रता रखना
(7) दोनों समय सन्ध्या वंदन करना
(8) सांय के समय सब मिलकर आरती, भजन, विष्णु गुणगान, ज्ञान चर्चा आदि करना
(9) निष्ठा और प्रेमपूर्वक प्रातःकाल हवन करना
(10) पानी, ईंधन और दूध को छानकर काम लें लेना
(11) वाणी को छानकर अर्थात सोच-विचार कर बोलना
(12) क्षमा का पालन करना
(13) दया को मन में रखना
(14) चोरी भूलकर भी नहीं करना
(15) किसी की निन्दा न करना
(16) कभी भी झूठ न बोलना
(17) किसी के साथ वाद-विवाद न करना
(18) अमावस्या के दिन व्रत उपवास रखना
(19) हर समय विष्णु का जप करते रहना
(20) जीव मात्र पर दया करना अर्थात् हरे वृक्षों में भी जीव है
(21) काम, क्रोध, लोभ आदि अजरों को जरना रखवाना, बैल को बंध्या न करवाना
(22) भोजन अपने हाथ से बनाना
( 23 ) थाट अमर रखना
(24) अमल (अफीम) न खाना
(25) तबांखू को खाना पीना व सुधंना नहीं
(26) भांग नहीं पीना
(27) मद्यपान नहीं करना
(28) मांस नहीं खाना
(29) नील रंग के वस्त्र न पहनना
इन नियमों का पालन करने से ही बिश+नवी अर्थात् बिश्नोई माने गए हैं, यह नामकरण भी इसी आधार पर हुआ है आगे भी लोग इसी नाम से जाने पहचाने जायेंगे।
प्रश्न 9. गुरुदेव ! परमात्मा व जीवात्मा में क्या अन्तर है ?
उत्तर – रणधीर ! परमात्मा व जीवात्मा में सत्ता रूप में कोई भेद नहीं है। परन्तु शासक-शासित का अन्तर है और स्वामी सेवक का सम्बन्ध है। जैसे स्वामी और सेवक में आत्मा की सत्ता तो एक ही है पर अधिकार के कारण अलग दिखाई देते हैं। परमार्थ दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। दोनों की आत्मा एक ही है।
प्रश्न 10. प्रभु ! आप श्री लोहट जी के घर कब प्रकट हुए सो विस्तारपूर्वक कहिए ?
उत्तर- रणधीर मेरे द्वारा नव महीने से अवतार लेने का वचन सम्वत् १५०८ भाद्रपद वदी अष्टमी को पूरा हुआ और उसी दिन अर्द्ध-रात्रि को मैं माता हंसा के सामने प्रकट हुआ।
प्रश्न 11. गुरुदेव ! आप प्रकट हुए या पैदा, इसके बारे में स्पष्ट कहिये ?
उत्तर – रणधीर प्रकट व पैदा होने में कोई भेद नहीं है। वैसे मैं हुआ तो था प्रकट। पर माता-पिता के संतोष के लिए उन्हें पैदा होने का भाव दिखाया मैं गर्भ के बिना भी आ सकता हूं और गर्भ से भी पैदा हो सकता हूं। मेरे लिए कोई निर्धारित नियम नहीं है जिससे बँध कर मैं कार्य करूं। मैं परम सत्ता हूं। मुझे कोई नियमों में बांध नहीं सकता।
प्रश्न 12. प्रभु ! आपने प्रकट होकर कौन-कौन सी लीलाऐं की ?
उत्तर – रणधीर ! जिस समय में प्रकट हुआ करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल गया। स्त्रियों ने जब बाल घुंटी देनी चाही तब उन्हें मुख का पता भी नहीं लगा। थोड़ी देर के बाद हजारों मुख देखने लगी कि घुटी किस मुख में दी जाय। ऐसा चमत्कार दिखाकर फिर मैं अन्तर्धान हो गया। मुझे न देखकर सबके सब घबरा गये। सबको घबराया हुआ देखकर मैं पुनः प्रकट हो गया और मुझे देखकर सब प्रसन्न हुए।
प्रश्न 13. प्रभु ! आपके अन्तर्धान होने में कोई विशेष कारण ?
उत्तर – हां रणधीर ! जब में संसार में अवतार लेता हूं। तब ब्रह्मा आदि सारे देवता मेरी स्तुति करते हैं। स्तुति करवाने के लिए मैं समराथल पर चला गया। इसलिए मुझे पीपासर से अन्तर्धान होना पड़ा।
प्रश्न 14. भगवन् ! आप स्तुति करवाने समराथल पर क्यों गये स्तुति तो पीपासर भी हो सकती थी ?
उत्तर- हां रणधीर ! स्तुति तो पीपासर पर भी हो सकती थी पर समराथल कई युगों से मेरा निवास स्थान रहा है। इसलिए मैंने समराथल पर ही देवताओं द्वारा स्तुति करवाना उचित समझा।
प्रश्न 15. भगवन् ! प्रत्याहार किसको कहते हैं ?
उत्तर – रणधीर ! इन्द्रियों को चित्त के अधीन कर मन को रोकना प्रत्याहार है।
प्रश्न 16. प्रभु ! प्राणायाम किसको कहते है और वे कितने प्रकार के है ?
उत्तर – स्थिर आसन से बैठकर श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति को रोकना प्राणायाम कहलाता है। यह रेचक, पूरक, कुम्भक करते हुए क्रिया की जाती है। ये मुख्य रूप से आठ प्रकार के है।
प्रश्न 17. आसन किसे कहते है और वे कितने प्रकार के है ?
उत्तर- एक जगह अलग-अलग आकृति बनाकर स्थिर बैठने को आसन कहते है। ये चौरासी प्रकार के हैं।
प्रश्न 18. भगवन् ! नियम क्या है ?
उत्तर -रणधीर ! शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को नियम कहते है।
प्रश्न 19. योग के कितने अंग है उनके नाम बताइये ?
उत्तर -योग के आठ अंग है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,धारणा, ध्यान और समाधि।
प्रश्न 20. गुरुदेव ! आप यौगिक ऐश्वर्य चमत्कार दिखाते हो तो ठीक है पर गुरुदेव ! योग का अर्थ क्या है सो बताइये ?
उत्तर – योग का अर्थ है जुड़ना अर्थात् जीव और ईश्वर इन दोनों का जुड़कर एक होना या तत्वरूप से एक समझना योग है।
प्रश्न 21. भगवन् ! इस अवतार में आपने जो-जो लिलाएं की वे सब आप मुझे कहिए ?
उत्तर- रणधीर ! मैंने जो लिलाएं की वो सुनो- जन्म घुंटी न लेना, अन्तर्धान होना, पीठ के बल पर न सोना, शरीर पर दिव्य तेज होना, अनेकों रूपों को एक साथ दिखाना, मेरे सामने देखने पर आंखों का चौंधियाना, माता का स्तनपान न करना, अन्धेरे में जाने पर भी प्रकाश का होना, शरीर में अधिक वजन होना आदि अनेकों लीलाएं मैंने की जो मैं आगे तुमको सुनाऊंगा। मैं यौगिक (ऐश्वर्य) चमत्कार दिखाते हुए अनेकों लीलाएं करता था।
प्रश्न 22. प्रभु आपने जन्म देवकी के घर पर लिया और सेवा माता यशोदा ने की ऐसा क्यों हुआ ?
उत्तर- रणधीर जब मैंने जन्म लिया उसी समय मेरी आज्ञा से वसुदेवजी ने मुझे मथुरा से गोकुल पहुंचा दिया। वसुदेवजी को भय था कि कहीं कंस मेरे लाला को *** न दें। क्योंकि आकाशवाणी ने कहा था देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवां बालक कंस की **** का कारण होगा। इसलिए मैं ग्यारह वर्षों तक गोकुल में रहा और माता यशोदा ने मेरी सेवा की।
प्रश्न 23. गुरुदेव ! यशोदा माता को वचन देने का क्या कारण था ?
उत्तर- कृष्ण अवतार मैंने देवकी-वसुदेव के घर पर लिया और मेरा लालन पालन माता यशोदा जी ने किया। कंस के बुलाने पर जब मैं मथुरा जाने लगा तब सारी बातें अक्रूर जी ने माता यशोदा से कह दी की यह कृष्ण देवकी का पुत्र है। यह सब बाते जानकर यशोदा जी ने सोचा कि यदि यह कृष्ण मेरी कोख से जन्म लेता तो आज मुझे छोड़कर दूर नहीं जाता। तब माता यशोदा बोली – कृष्ण ! तुमने मेरी कोख से जन्म नहीं लिया। यह मेरे मन की इच्छा अधूरी रह गई। तब मैंने कहा- मां अबकी बार तू होगी हंसा और नन्द जी होंगे लोहट जी मैं तुम्हारे घर पर जाम्भोजी के रूप में अवतार लूंगा।
प्रश्न 24. गुरुदेव आपका जन्म-घुंटी न लेने का क्या कारण था ?
उत्तर- जन्म घुटी न लेने का कारण पिछले कृष्ण अवतार में मैंने माता यशोदा को वरदान दिया था कि अबकी बार मैं तेरी कोख से अवतार तो लूंगा परन्तु इस कृष्ण अवतार की तरह खाना पीना नहीं करूंगा। कृष्ण अवतार में मुझे लीला करनी थी। इस बार मैं नर रूप में निरहारी बन कर आया हूं। मैं अपने ही आधार हूं किसी वस्तु के आधारित नहीं।
प्रश्न 25. गुरुदेव ! आपके नामकरण के बाद कौन सा संस्कार करवाया ?
उत्तर – रणधीर ! नामकरण संस्कार के बाद कर्णवेध संस्कार करने के लिए एक सुनार आया और मेरे कानों में (मुरकी) कुण्डल डाले। परन्तु कुण्डल (मुरकी) नीचे गिर गया। यह देख लोगों ने सोचा कान टूट गया। पर देखा तो कान में छेद भी नहीं हुआ। कितनी ही बार सुनार ने प्रयत्न किये परन्तु सफलता नहीं मिली। आखिर हार मान कर सुनार खाली हाथ लौट गया।
प्रश्न 26. भगवन् ! आपने कितने वर्षों तक मौन रखा ?
उत्तर – रणधीर ! मैं सात वर्षों तक मौन रहा पर कभी-कभी आवश्यकता के अनुसार बोल जाया करता था। मुझे जलपान करवाने जो तांत्रिक आया और जीव *** तब मैंने उससे कहा- रे नीच, तान्त्रिक ! तुमने तेरह जीवों की *** इससे तुम्हें क्या प्राप्त हुआ ?
प्रश्न 27. प्रभु ! जब आपने कुछ भी ग्रहण (जलपान) नहीं किया ? तब भी लोहट जी ने क्या कोई उपाय किया ?
उत्तर – रणधीर ! पिताजी ने अनेकों उपाय किये परन्तु सफलता नहीं मिली। एक बार पिताजी मुझे एक तांत्रिक के पास ले गए। उस तांत्रिक ने अनेकों जीवों को मारा और मैंने पुनः उन सब जीवों को जीवित कर दिया। तब उस तांत्रिक के समझ में आई और वह पाखण्ड छोड़कर चला गया।
प्रश्न 28. भगवन् ! आपने अपनी माता का स्तनपान क्यों नहीं किया ?
उत्तर – रणधीर मैं स्वयं एक क्षण में पूरे ब्रह्माण्ड का भरण पोषण करने में समर्थ हूं फिर मुझे स्तनपान करने की क्या आवश्यकता है ? गुरु आप संतोषी अवरांपोषी तत्व महारस वाणी एक क्षण में तीन भवन म्हें पोखां जीवा जूण समाई। एक पलक में सर्व संतोषा जीया जूण समाई।
प्रश्न 29. प्रभु ! आपने किस-किस को ओर क्या-क्या चमत्कार दिखाये ?
उत्तर- रणधीर ! मैंने दूध की कढ़ावणी (कमौरी) हारे (अगीठी) से नीचे उतारकर अपने चरणों का चिन्ह घर के अन्दर अंकित किया। सब बछड़ों को इक्ट्ठा करके बाड़ी (गोष्ठ) में बंद कर दिया। मैंने दीवार पर हाथ रखा वहां हाथ का निशान बन गया। तांतु कोशिश करने पर भी मुझे उठा न सकी। श्री लोहट जी ने मेरे अन्दर परमात्मा का दर्शन किया। सभी लोगों को सर्वत्र एक साथ दर्शन देना।
प्रश्न 30. समाधि से क्या मिलता है ?
उत्तर – समाधि से शान्ति मिलती है।
प्रश्न 31. प्रभु ! समाधि किसको कहते है ?
उत्तर– ध्याता ध्यान और ध्येय इन तीनों को एक करके अंतरमुखी बनना संसार का कोई भान ही न होना समाधि कहलाता है।
प्रश्न 32. प्रभु ! धारणा किसको कहते है ?
उत्तर- राणधीर ! चित्त को एक स्थान पर एक विषय में बांध देने का नाम धारणा है।
प्रश्न 33. गुरुदेव ! ध्यान का क्या अर्थ है ?
उत्तर – ध्येय में चित्त को समाहित करना अर्थात् एकाग्रता को ध्यान कहते हैं।
प्रश्न 34. गुरुदेव ! आपने मौन रहते समय क्या-क्या चमत्कार दिखाये ?
उत्तर- रणधीर ! मैं जो कुछ करता हूं सो सब चमत्कार ही है। मैं अन्धेरे घर में प्रकाश कर देता, कभी घर के ऊपर तो कभी नीचे दिखाई देता, कभी एक रूप में तो कभी अनेकों रूपों में दिखाई देता। ये सब देखकर लोग आपस में काना-फूंसी करते कि भाई यह बच्चा तो कोई अलौकिक जीव है। देखो न तो कुछ खाता है और न कुछ पीता ही है फिर भी कितना हृष्ट-पुष्ट है।
प्रश्न 35. प्रभु ! यह बताइये कि आपका नामकरण किसने किया ?
उत्तर – रणधीर ! एक बार मेरे पिताजी एक विद्वान ब्राह्मण को बुला कर लाये। ब्राह्मण से कहा- ब्राह्मण देव ! आप मेरे पुत्र का नामकरण करो। ब्राह्मण मुझे देखकर कहने लगा। ठाकुर साहब आपके बालक में तो साक्षात् विष्णु भगवान के से लक्ष्ण दिख रहे हैं। यह अनामि (बिना नाम वाला) है। या ऐसे मानो कि सारे नाम ही इसके है। आपका यह बालक जगत् में प्रकाश करने वाला होगा। इसलिए संसार में लोग इन्हें जम्भ नाम से पुकारेंगे। बोलने की सुविधा अनुसार जाम्भोजी भी कहेंगे।
प्रश्न 36. सर्वात्मन ! क्या संसार में मेरा हमेशा के लिए आना जानाहोता ही रहेगा ? मैं मुक्त नहीं होऊंगा ?
उत्तर – रणधीर ! नर और नारायण दोनों हमेशा साथ ही रहते है। मैं नारायण और तू नर है। अतः अब विचार कर की मुक्त होना है या कार्य करते रहना है।
प्रश्न 37. भगवन् ! गीता उपदेश से मुक्ति हाथ लग जाती है फिर मेरी मुक्ति क्यों नहीं हुई ?
उत्तर- रणधीर ! मेरी लीला के सहयोगी होते है कारक पुरुष, उनकी मुक्ति नहीं होती। वे समय-समय पर मेरा कार्य करने के लिए संसार में आते रहते हैं इसलिए तेरी मुक्ति नहीं हुई क्योंकि तू कारक पुरुष है।
प्रश्न 38. प्रभु ! आप जिस समय श्री कृष्ण थे। उस समय मैं किस रूप में था?
उत्तर- रणधीर ! जिस समय मैं कृष्ण रूप में था। उस समय तू अर्जुन था। संसार में जब भी आना होता है। हम दोनों साथ में ही आते है। महाभारत युद्ध के समय तुम्हारे पूछने पर मैंने तुम्हें गीता का उपदेश किया था।
प्रश्न 39. गुरुदेव ! आपके प्रथम शब्दोपदेश का अर्थ हम छोटी बुद्धि के लोग कुछ समझे नहीं, आप कृपा करके हमें समझाइये ?
उत्तर- रणधीर ! “गुरु चीन्हों” उपस्थित सारे लोगों को आदेश दिया कि आप सब लोग परमात्मा को पहचानो इस पाखण्डी के चक्र में क्यों पड़े हो? “गुरु चीन्ह पुरोहित” पुरोहित ! तुम भी परमात्मा रूपी गुरु को पहचान। “गुरु मुख धर्म बखाणी”
गुरु मुखी बनकर धर्म का प्रचार-प्रसार कर जिससे तेरा जीवन सफल हो सके। “जो गुरु होयबा” वे गुरु अर्थात् परमात्मा कैसे हैं ? “सहजे शीले” वे सहज रूप से ही शीलवान है। “शब्दे” परमात्मा शब्द की भांति व्यापक है। “नादे वेदे” उनकी नाद अर्थात् वाणी से वेद प्रकट होते हैं। “तिहि गुरु का आलिंकार पिछाणी” उन परमात्मा रूपी गुरु के लक्ष्णों को पहचानों। “छ” दर्शन जिहीं के रुपण थापण जिसके रूप का बखान छः दर्शनों में हुआ हैं।
“संसार बरतण निज कर थरप्या” उन ईश्वर ने संसार रूपी बर्तन को स्वयं अपने हाथों से बनाया है। “सो गुरु प्रत्यक्ष जाणी” वह गुरु कोई और नहीं मैं ही हूं जो तेरे सामने प्रत्यक्ष हूं। “जिहिं के खरतर गोठ निरोतर वाचा” मेरे बारे में शास्त्रीय गोष्ठियां निरुतर हो जाती है क्योंकि मैं वाणी का विषय नहीं हूं। मन से मन के पार जाने पर जाना जाता हूं। “रहिया रुद्र समाणी” जैसे शरीर में समाया हुआ है उसी प्रकार मैं संसार में सर्वत्र व्यापक हूं।
“गुरु आप संतोषी अवरां पोषी” मैं स्वयं सन्तोषी हूं पर दूसरों का भरण पोषण करता हूं। “तत्व महारस वाणी” मेरी वाणी तत्व से पूर्ण है अर्थात् रसमयी है। सागगर्भित है। सम्पूर्ण तत्वों से युक्त है। “के के अलिया बासण होत हुताषण” जैसे मिट्टी के आले (कच्चे) बर्तन अग्नि के संग से पक जाते है। “तामै खीर दुहीजू” उसमें कोई भी प्रकार के तरल पदार्थ रखे जा सकते है। उसी प्रकार मेरा संग करने से मानव में ज्ञान ग्रहण करने की शक्ति आ जाती है। “रसूवन उसके लिए संसार में किसी तरह का रस शेष नहीं रहता।
“गोरस” छाछ की तरह रह जाता है। “घीय न लीयूं घी निकालने के बाद “तहां दूध न पाणी” वह न दूध न पानी रहता है। गुरु ध्याई रे ज्ञानी” इसलिए हर मानव को ही ज्ञानी गुरु की शरण जाना चाहिए। “तोडत मोहा” वे मोह को तोड़ देंगे। “अति खुरसाणी” जैसे खुरसाण पत्थर से “छीजत लोहा” लोहा घिसता है उसी प्रकार ज्ञान के द्वारा मोह ममता को घिसकर (रगड़कर) उतार देंगे।
“पाणी छल तेरी खाल पखाला” अतः तान्त्रिक ! तेरा शरीर पानी की मसक की तरह है। इसलिए सावधान हो जा। “सतगुरु तोड़े मन का साला मन का भ्रम तो सतगुरु ही मिटा सकते है। “सतगुरु हां तूं सहज पिछाणी अतः मैं सतगुरु, परमात्मा, ईश्वर आदि सब कुछ हूं। तू सहज रूप से पहचान। “कृष्ण चरित बिन काचै करवै रहयो न रहसी पाणी” क्योंकि ईश्वर सत्ता के बिना कच्चे घड़े में पानी नहीं रह सकता। रणधीर! इस शब्द के भाव को समझकर जीव संसार से मुक्त हो जाते हैं।
प्रश्न 40. गुरुदेव ! आपने मौन कब तोड़ा सो भी कहिए ?
उत्तर – एक समय ठाकुर साहब ने सुना कि नागौर में एक तांत्रिक आया हुआ हैं उसको ले आऊं। वह अवश्य कोई न कोई उपाय करेगा। ठाकुर साहब रथ पर सवार होकर नागौर गये और उस तान्त्रिक को वस्तु स्थिति बतलाकर पीपासर ले आये। तांत्रिक ने पाखण्ड करना शुरु किया। उसने दीपक जलाना चाहा परन्तु एक भी दीपक नहीं जला सका। दीपक न जलने के कारण तान्त्रिक को क्रोध आने लगा। उसी समय मैं वहां से खड़ा होकर एक कच्चे घड़े में कच्चे धागे से कुए में से पानी भरकर ले आया और सारे दीपकों में से तेल निकाल कर सब दीपकों में पानी भरा और चुटकी बजाई उसी समय सारे दीपक (१०८ दीपक) एक साथ जल उठे।
ऐसा चमत्कार देखकर तांत्रिक लज्जित होकर मेरे पावों में गिर पड़ा। तब मैंने उस तान्त्रिक व अन्य लोगों को सम्बोधित करके सर्वप्रथम शब्द का उच्चारण किया। उस दिन से मैंने मौन व्रत का त्याग कर दिया।
प्रश्न 41. गुरुदेव ! इन बातों को सुनकर राजकुमार ने फिर क्या पूछा ?
उत्तर- रणधीर ! राजकुमार ने पूछा- भगवन्! ये अवतार लेने वाले राम कृष्ण आदि भगवान है या देवता ? तब मैंने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया “भवन-भवन म्हें एका जोती” राजकुमार! प्रत्येक भवन में मेरी ही ज्योति है। “चुन चुन लिया रतना मोती” मैं सभी जगह से मेरे भक्तों को चुन-चुनकर बैकुण्ठ धाम में भेजता हूं।
“म्हे खोजी था पण होजी ना ही” मैं खोज करने में पूर्णतः सक्षम हूं अनजान नहीं हूं। “खोज लहां धुर खोजूं” मैं शुरु से ही मूल की खोज करता हूं। “अलाह अलेख अडाल अयोनि मैं सत्य स्वरूप से व्यापक सत्ता हूं। किसी भी जीव योनि में जन्म नहीं लेता। “स्वयंभू” मैं स्वयं प्रकट होने वाला हूं।
“जिंही का किसा बिनाणी” जो अपने आप प्रकट होते है उनका विनाश कैसा ? अर्थात् उनका कोई विनाश नहीं कर सकता। “म्है सरै न बेठा सीख न पूछी” मैं सब कुछ जानता हूं। अतः किसी भी विद्यालय में बैठकर कुछ भी शिक्षा प्राप्त नहीं की। “निरत सुरत सब जाणी” सम्पूर्ण वेद-वेदांगो को भी जानता हूं।
“उत्पत्ति हिन्दु जरणा जोगी” संसार में उत्पन्न होने वाला जीव जन्म से हिन्दु ही होता है। संस्कार करवाकर अलग-अलग पंथ में मिला लेते है पर योगी तो वो ही है जिसके पास जरणा (धैर्य है)। “क्रिया ब्राह्मण जिसके पास उत्तम क्रिया होती है वे ब्राह्मण है। “दिल दरबेंसा” जिसका हृदय शुद्ध है वे दरवेश है।
“उन मुन मुल्ला अकल मिसलमानी” मन को अन्तर्मुखी करके असली फकीर की तरह बुद्धि लगाकर तत्व की बात स्वीकार करने से जीवन परिपक्व हो जाता है। मैंने राव जोधा को भी बैरिसाल नगाड़े दिये थे।
प्रश्न 42. गुरुदेव ! इस शब्द को सुनकर फिर राजकुमार ने क्या पूछा ?
उत्तर – रणधीर ! राजकुमार ने मेरे हाथ में माला देखकर पूछा- भगवन् आप जप ध्यान किसका करते है ? तब मैंने शब्दोपदेश सुनाया- अइयालो अपरम्पर वाणी म्हें जपां न जाया जीऊं” लोगों ! मेरी वाणी अपरम्पार है। मैं किसी जन्म लेने वाले जीव का जप नहीं करता और तुम्हें भी जन्में जीवों का जप नहीं करना चाहिए। “नव अवतार नऊं नारायण तेपण रूप हमारा थीऊं” राजकुमार ! जो नौ बार परमात्मा ने अवतार लिया वे सब मेरे ही अवतार थे।
मैंने ही अलग-अलग समय में आवश्यकता के अनुसार अवतार लिया। आगे भी आवश्यकता के अनुसार अवतार लूंगा। “जपी तपी तक पीर ऋषेश्वर कायं जपीजे तेपण जाया जीऊं ऋषि-मुनि तो स्वयं जप करने वाले है। उन जन्में जीवों का तुम जप क्यों करते हो ? “खेचर भूचर क्षेत्रपाला परगट गुप्तां कांय जपीजै तेपण जाया जीऊं”
आकाश व पृथ्वी पर विचरण करने वाले, प्रकट या गुप्त रहने वाले जन्में जीवों का जप क्यों करते हो? “बांसग शेष गुणिदां फुणिदां कांय जपीजै तेपण जाया जीऊं” चौषठ यौगिनियों और बावन प्रकार के वीरों का जप क्यों करते हो? “जपा तो एक निरालंभ शभूं जिहिं के माई न पीऊं” यदि जप ही करना है तो निरालम्ब स्वयम्भू का करो जिसके माता-पिता नहीं है अर्थात् वे जन्में हुए नहीं है। अपने आप प्रकट होने वाले है।
“न तन रक्तुं न तन धातु न तन ताव न सीऊ” उन परमात्मा के न शरीर है, न रक्त, न धातु, न शीत है न ऊष्णता। “सर्व सिरजत मरत बिबरजत तासन मूल जे लेणा कियो” वे परमात्मा सारी सृष्टि की रचना करने वाले है। जो उनकी शरण में चले जाते हैं। इसलिए उनके मूल तत्व को खोजो। “अइयालो अपरम्पर वाणी म्हें जपा न जाया जीऊं” अरे लोगों! जन्में जीवों का जप क्यों करते हो ? मैं कभी भी जन्में जीवों का जप नहीं करता। तुम्हें केवल परमात्मा का ही जप, तप, योग आदि करना चाहिए।
प्रश्न 43. गुरुदेव ! आगे और राजकुमार ने क्या प्रश्न किया सो बताइये?
उत्तर – रणधीर ! उद्धरण ने फिर पूछा आप कहते है कि आदि-अनादि सृष्टि की रचना मैंने की है। आपकी आयु तो बहुत कम है और बातें बहुत बड़ी-बड़ी करते हो। राजकुमार उद्धरण को फिर मैंने समझाते हुए यह शब्द सुनाया- “जद पवण न होता पाणी न होता न होता घर गैणारु” जिस समय पवन, पानी, पृथ्वी, आकाश ये नहीं थे। “चंद न होता सूर न होता” चन्द्रमा और सूर्य ये भी नहीं थे। “न होता गंगदर तारु” न आकाश में तारे थे।
“गऊ न गोरु” न गाय थी न बैल। “माया जाल न होता” उस समय माया का फैलाव नहीं था। “न होता हेत पियारु” प्रेम करने वाले कोई नहीं थे। “माय न बाप न बहण न भाई साख न सैण न होता न होता पख परवारूं कोई भी सम्बन्धी माता-पिता, बहन-भाई मित्र आदि नहीं थे।
“लख चौरासी जीया जूणी न होती” चौरासी लाख प्रकार की जीव यौनियां नहीं थी। “न होती बणी अठारा भारु अठारह भार वनस्पति नहीं थी। “सप्त पताल फुणिंदा न होता उस समय सातों पाताल और शेष नाग आदि नहीं थे। “न होता सागर खारु समुद्र भी नहीं था।
“अजिया सजिया जीया जूणी न होती उस समय निर्जीव-सजीव दोनों प्रकार की सृष्टि नहीं थी। “न होती कुड़ी भरतारुं स्त्री पुरुष भी नहीं थे। “अर्थ न गर्थ न गर्व न होता” न धन था, न पशुधन और नहीं धन का अहंकार था। “न होता तेजी तुरंग तुषारु” न तेज चलने वाले घोड़े थे। “हाट पटण बाजार न होता” न बाजार न नगर थे, न दुकानदार थे।
“न होता राज दुवारु” न राजा लोगों का दरबार था। “चाव न चहन न कोह का बाण न होता” न मन में चाव (उत्साह) पैदा करने वाले लक्ष्यभेदी बाण थे। “तद होता एक निरंजन शंभू उस समय केवल माया रहित निराकार परमात्मा थे। “के होता धधु कारू” और शून्य था अर्थात् आकाश मात्र था। “बात कदोकी पूछ लोई” तुम कब की बात पूछ रहे हो ? “जुग छतीस विचारू” मैं छतीस युगों की जानता हूं।
“ताह परैरे अवर छतीसूं और उससे भी पहले के छतीस युगों की। “पहला अन्त न पारु” छतीस युगों से पहले का तो कोई पार ही नहीं है। “म्है तदपण होता अब पण आछै” जिस समय शून्य था उस समय भी मैं था अब तेरे सामने भी हूं। “बल-बल होयसा” जब-जब जरूरत पड़ती है मैं आता हूं। “कह कद-कद का करू विचारु बोल कौन-कौन सी बात का विचार करके कहूं। मैं हर समय रहता हूं। पहले भी था ओर आगे भी रहूंगा तथा अब भी हूं।
प्रश्न 44. गुरुदेव ! इन लोगों को क्या स्वार्थ है ?
उत्तर – सांसारिक लोगों में लौकिक सुख की इच्छा होती है। उसकी पूर्ति के लिए मेरे या सन्तों के पास जाते हैं। परमार्थ की भावना लोगों में प्रायः कम होती है। वे तो स्वार्थपूर्ति में ही लगे रहते हैं।
प्रश्न 45. गुरुदेव ! आपने राव दूदा को क्या वरदान दिया और क्यों दिया ?
उत्तर- रणधीर ! एक बार राव दूदा को उसके भाई ने देश निकाला दे दिया और जिससे वह एक दिन घूमता हुआ वह पीपासर पहुंचा। उस समय मैं कुवे पर गायों को संकेत करके पानी पिला रहा था। मेरी आज्ञा के अनुसार गायों को पानी पीते देखकर राव दूदा के मन में आया कि इनके पास जाकर कुछ मांग लूं। जब मैं गायों को लेकर रवाना हुआ। उस समय राव दूदा भी घोड़े को दौड़ाता हुआ मेरे पीछे-पीछे चला। परन्तु मेरी और राव दूदा की दूरी उतनी ही बनी रही जितनी पहले थी।
जिस समय राव दूदा घोड़े को छोड़कर पैदल चला तब मेरे पास पहुंचा। पास आते ही मैंने उसको एक केर की लकड़ी दी। जो राव दूदा के हाथ में आते ही खांडा बन गई। तलवार के साथ वरदान भी दिया कि अब तुम अपने घर जाओ तुम्हें अपना राज्य मिल जायेगा। लकड़ी की तलवार बनने पर राव दूदा को विश्वास हो गया कि अब राज्य भी मिल जायेगा। ऐसा सोचकर राव दूदा मेड़ते चला गया। मेड़ते में पहुंचने पर दूदा का स्वागत हुआ और राज्य भी वापस कर दिया गया। राव दूदा के जाने पर एक ठाकुर आया उसको मैंने मीठे पानी का कुआ बताया।
प्रश्न 46. प्रभु! एक ही दिन में फसल कैसे पक गई ?
उत्तर -रणधीर ! मेरी शक्ति को कौन जान सकता है? मैं क्षण मात्र मे सृष्टि की रचना करके पुनः प्रलय भी कर सकता हूं। मेरे लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।
प्रश्न 47 प्रभु ! आपने खेती करके एक ही दिन में फसल क्यों पकाई ?
उत्तर – रणधीर ! मैं भक्तों के वश हूं। ठाकुर साहब ने एक दिन बात चलाई कि बेटा कुछ कार्य नहीं करता। उनकी बात सुनकर मैंने दो बछड़ों को लिया और खेत चला गया। खेत जाकर मैंने बछड़ों को आज्ञा दी कि तुम अपने आप हल चलाते रहो। मेरी आज्ञा से बछड़े अपने आप चलने लगे। बीज भी अपने आप गिरने लगा। मैं दूर जाकर खड़ा हो गया। देखते ही देखते खेत की जुताई हो गई और बाजारा, मोठ, मूंग, तिल आदि अनाज उग कर बड़े हुए। पूरा खेत अनाज से भर गया। मैंने उस खेत से अनाज उठाकर घर में अलग-अलग अनाज की ढेरियां लगा दी और पिताजी से कहा पिताजी ! यह अनाज आपके जीवन में कभी भी कम नहीं पड़ेगा।
प्रश्न 48. भगवन् ! आपके द्वारा प्राप्त अन्न कब तक चलता रहा ?
उत्तर- रणधीर ! मेरे द्वारा प्राप्त अन्न ठाकुर साहब के जीवन भर चलता रहा। मैं एक श्वास में सम्पूर्ण जीव योनी का भरण पोषण कर सकता हूं। केवल इस भूलोक के ही नहीं सूतल आदि लोकों में भी मेरा आना जाना होता रहता है।
प्रश्न 49. प्रभु ! जब आप नहीं मिले तब ग्वाल बालों ने क्या किया ?
उत्तर -सभी जगह खोजने पर जब मैं नहीं मिला तब सारे बच्चों ने जाकर ठाकुर साहब से बतलाया। ठाकुर साहब सब कुछ जानते थे उन्होंने सभी लोगों को सान्तवाना देते हुए कहा- आप लोग उनकी चिन्ता न करें। वे तो सबकी चिन्ता मिटाने वाले है। जैसे मैंने पशुओं को छुड़ाकर ग्वालों की चिन्ता मिटाई।
प्रश्न 50. गुरुदेव ! आप सूतल लोक में कितने समय तक रहे ?
उत्तर- रणधीर ! मैं सूतल लोक में चालीस दिनों तक रहा सूतल लोक में पाहल बनाकर चार लाख लोगों को विश्नोई बनाया। विश्नोई बनने के बाद वे सब विष्णु के हो गये।
प्रश्न 51. गुरुदेव ! आप सूतल लोक कब व किसलिए गए ?
उत्तर- एक दिन की बात है सारे ग्वाल बाल मेरे पास आकर कहने लगे आज हम सब आंख-मिचौनी का खेल खेलेंगे। पहले सारे बच्चे छिपने गये तो क्या देखते हैं कि जहां भी वे जाते है वहीं पर में दिखाई देता हूं।
आखिर हार कर बच्चे बोले भगवन् ! अब आप छिपो हम आपको खोजेंगे। तब में छिपकर सूतल लोक में जहां प्रहलाद का पौत्र बली रहता है उनके पास गया। जहां पर चार लाख प्रहलाद के अनुयायी भक्त थे उन भक्तों को दर्शन देकर कृतार्थ किया अर्थात् उनका कल्याण किया। उनका कल्याण करने के बाद मैं समराथल पर प्रकट हुआ। मुझे देखकर सभी बालक अति प्रसन्न हुए।
प्रश्न 52. गुरुदेव ! आपने मीठे पानी का कुआ कहां बताया ?
उत्तर – रणधीर ! खीचियासर के ठाकुर को उसके गांव में मैंने एक मीठे पानी का कुआ बताया। वहां आज तक लोग इस कुए का मीठा पानी पीते हैं। और साथ ही साथ मेरा गुणगान करते हैं। यदि मेरे प्रति श्रद्धा और विश्वास रखेंगे तथा मेरे द्वारा बताये हुए नियमों का पालन करेंगे तो आगे भी पानी का अभाव नहीं आयेगा। मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं है। मैंने एक ही दिन में खेत निपजाया अर्थात् खेत की फसल को पकाया।
प्रश्न 53. गुरुदेव ! बूंद और सागर दोनों में जल तो एक ही है फिर अन्तर क्या है ?
उत्तर हे रणधीर ! बूंद में सागर की तरह लहर नहीं उठती। बूंद सागर में मिल सकती है पर सागर बूंद में नहीं मिल सकता अर्थात् सागर बूंद नहीं हो सकता। परमात्मा सागर की तरह है वह जैसे चमत्कार दिखा सकते है वैसा जीव नहीं कर सकता। एक बार मैंने भी राव दूदा को चमत्कार दिखाया और वरदान दिया।
प्रश्न 54. गुरुदेव ! क्या जीव भगवान हो सकता है ?
उत्तर – रणधीर ! जीव भगवान नहीं बन सकता है परन्तु भगवान में मिल कर जीव भाव मिटा सकता है। जीव व ईश्वर सत्ता दोनों एक हो जाती है। जैसे एक बूंद का कोई अस्तित्व नहीं रहता। ऐसे ही जीव भगवान में मिलकर भगवानमय हो जाता है अर्थात् बूंद सागर हो जाती है ऐसे ही जीव ईश्वर हो जाता है।
प्रश्न 55. भगवन् ! आपमें शक्ति अर्जित की हुई है या स्वाभाविक ही है ?
उत्तर- हे रणधीर ! मैं स्वयं ही ईश्वर हूं। मेरी आराधना करने से जीव में शक्ति संग्रहित होती है। जिससे वह जीव कुछ ऐसा कार्य कर देता है। जो सामान्य मानव नहीं कर सकता।
प्रश्न 56. गुरुदेव ! ईश्वरीय शक्ति क्या है ?
उत्तर – रणधीर ! परमात्म शक्ति ही ईश्वरीय शक्ति है जो परमात्मा का अभिन्न रूप से चिन्तन करता है। उसमें यह शक्ति पाने की योग्यता आ जाती है और वह भी अलौकिक कार्य करने लगता है पर ईश्वर नहीं हो सकता। कुछ अंश में ईश्वरीय काम कर लेता है। जिससे लोग उसको भी भगवान मानने लग जाते है। भगवान तो वह सत्ता है जो एक क्षण में ब्रह्माण्ड की रचना कर सकते है परन्तु जीव ऐसा नहीं कर सकता।
प्रश्न 57. गुरुदेव ! ईश्वरीय शक्ति हर किसी को मिल सकती है क्या ?
उत्तर- हे रणधीर ! अभिन्न रूप से ईश्वर चिन्तन करने से आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है। और आन्तरिक शक्ति ईश्वर रूप में परिवर्तित होकर आलौकिक कार्य करने की शक्ति आ जाती है|
प्रश्न 58. प्रभु ! किस शक्ति के कारण आपने बिना बादल के बरसात की ?
उत्तर- रणधीर ! मनुष्य ईश्वरीय शक्ति का ही एक अंश है। वह ईश्वरीय शक्ति सर्वत्र स्वतन्त्ररूप से कार्य करती है। उन्हें दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं है। मैं ईश्वर होने के कारण कोई असम्भव कार्य को संभव कर सकता हूं। मुझे किसी के सहयोग की आवश्यकता नहीं है।
प्रश्न 59. गुरुदेव ! आपने बरसात किस उद्देश्य से करवाई सो कहिये ?
उत्तर- रणधीर ! एक दिन की बात है पिताजी ने मुझे पानी लाने को भेजा। मैं सर्वत्र घूम-फिर वापस खाली घड़ा लेकर आ गया। पिताजी ने पूछा- घड़ा खाली लेकर क्यों आया ? मैंने कहा- पिताजी! मुझे कहीं भी शुद्ध पानी नहीं मिला। इसलिए मैं खाली घड़ा लेकर आ गया। पिताजी व्यंग्य से भरे वचन कहने लगे – घर में पानी नहीं और तालाब का पानी शुद्ध नहीं है। तब तू मेह बरसा दे पिताजी के कहने की देरी थी। बस पिताजी के कहते ही मैंने आकाश की ओर इशारा (संकेत) किया और झमाझम बरसात होने लगी। देखते ही देखते बिना बादलों के पानी ही पानी हो गया।
प्रश्न 60. गुरुदेव ! आपने गऊंओं को चराने की लीला कब प्रारम्भ की ?
उत्तर रणधीर ! जिस दिन मैंने पुरोहित को उपदेश किया उसके बाद मेरे लिए किसी तरह का उपचार नहीं करवाया गया और मैंने गायों को चराने का कार्य शुरु कर दिया। मैं सर्वप्रथम भ्रमण करता हुआ सभी जीवों की खोज करने लगा क्योंकि मैं खोजी हूं और उत्तम जीवों की खोज करने के लिए ही मेरा इस संसार में आना हुआ है।
प्रश्न 61. गुरुदेव ! उद्धरण ने आपसे और क्या-क्या प्रश्न पूछे ?
उत्तर – रणधीर उद्धरण ने सबसे पहले मेरे चारों ओर घुमकर देखा और फिर पूछा आपका रूप कैसा है यह हमें कुछ समझ में नहीं आया कृपा करके आप अपने रूप के बारे में कहिए? मैंने उद्धरण से जो शब्दोपदेश किया वह इस प्रकार है- “मौरे छाया न माया” मेरे निज स्वरूप में न अविद्या है और न ही सत्वगुण प्रदान माया “लोहू न मासु रक्तुं न धातु” न रक्त है, न मांस, न रजवीर्य है, न सप्त धातु आदि “मौरे माई न बापू” मेरे स्वरूप में कोई किसी तरह का विकार नहीं है।
मेरे न माता है और न पिता ही। “आपण आपुं’ मेरा कोई कारण नहीं है मैं अपने आप में ही हूं। “रोही न रापुं कोपूं न कलापू दुःख न सरापू” मैं न तो शरीर हूं और न ही शरीर से सम्बन्धित रूप, न शरीर धारियों को देखकर कुपित होता और न ही कोई कल्पना करता हूं। न मैं कभी दुःखी होकर किसी को शाप ही देता हूं। “लोई अलोई त्युंह तृलोई” मैं शरीर रूप से दिखता हूं पर वास्तव में अशरीर हूं।
तीनों लोकों में “ऐसा न कोई” मेरे जैसा और कोई नहीं है। “जपा भी सोई” इसलिए मेरा जप करो। “जिहिं जपे आवागमण न होई” मेरा जप करने से आवागमन छूट जायेगा। “मोरी आद न जाणत” लोग मेरे आदि कारण को नहीं जान सकते। “महियल धूवा बखाणत” केवल पर्वत पर घूवें को देखकर अग्नि का अनुमान लगाया जाता है। इसी तरह मेरे लक्ष्णों को देखकर अनुमान लगाते है।
“उर्ध ढाकले तृसूलूं।” संसार में तीन प्रकार की सूले (दुःख) हैं भूख, प्यास और निद्रा इन तीनों को मैंने जीत रखा है “आद अनाद तो हम रचीलो हमे सिरजीलो से कौण” आदि अनादि सृष्टि की जो रचना हुई है वो मेरे द्वारा ही की गई है। मुझे पैदा करने वाला कोई नहीं है “म्हे जोगी के भोगी कै अल्प अहारी” मैं योगी हूं या भोगी हूं अथवा अल्पाहारी हूं। “ज्ञानी के ध्यानी के निज कर्मधारी” मैं ज्ञानी हूं या ध्यानी अथवा स्वयं का कार्य करने वाला हूं?
“सोषी के पोषी कै जल बिम्ब धारी” मैं शोषण करने वाला हूं या पोषण करने वाला ? अथवा जल में प्रतिबिम्ब की तरह हूं। “दया धर्म थाले निज वाला ब्रह्मचारी” इन बातों को कोई भी नहीं जान सकता। मैं दया और धर्म की स्थापना करने के लिए निजस्वरूप में ब्रह्मचारी बन कर आया हूं। अतः तुम जिस भाव से मुझे देखना चाहते हो।
उस भाव से मेरा असली स्वरूप नहीं देख सकते। यदि मुझे जानना चाहते हो तो मेरी शरण में आना पड़ेगा। क्योंकि मैं सर्वत्र व्यापक परमसत्ता हूं। इसलिए परम सत्ता को पाने के लिए मेरी शरणागति जरूरी है।
प्रश्न 62. प्रभु ! आपने पशुओं को कैसे छुड़ाया ?
उत्तर – जोधपुर नरेश के पशुओं को उनके ग्वालों से छीनकर ले गये। तब ग्वाले मेरे पास आकर बोले – भगवन् आप हमेशा अलौकिक कार्य करते है। प्रभु ! आज आप हमारा भी एक काम कर दो। आप हमारे पशुओं को छुड़ा दीजिए। मैंने उन ग्वालों से कहा- ग्वालों आप सब अपनी-अपनी लाठी (पशु चराते वक्त हाथ में ली गई लकड़ी) पर चढ़कर दौड़ो।
सभी ग्वाले अपनी-अपनी लाठी पर चढ़कर दौड़े जिससे घोड़ों की टापों की सी आवाज सुनकर डाकुओं ने सेना समझ कर पशुओं को छोड़ दिया और स्वयं भाग गये। इधर ग्वाले पशुओं को लेकर आये और सामने राज कुमार उद्धरण अपनी सेना लिये हुए आया। पशुओं को देखकर उद्धरण ने ग्वालों से पूछा- इन पशुओं को किसने छुड़ाया।
तब सभी ग्वालों ने मेरा नाम लिया और जो मैंने युक्ति बतलाई वो भी उन सब ने बतला दी, यह बात सुनकर उद्धरण मेरे पास आया और कहने लगा। इस रूप में आप कौन है यह हम जानना चाहते है।
प्रश्न 63. गुरुदेव ! अभी तक आपने कितने अवतार लिये है ?
उत्तर – रणधीर ! पृथ्वी के कणों की गिनती की जा सकती है परन्तु मेरे अवतारों की गणना नहीं की जा सकती है।
प्रश्न 112. गुरुदेव ! आप अवतार कब व क्यों लेते है ?
उत्तर- रणधीर ! मेरा अवतार लेने का कारण धर्म की रक्षा व पापियों का नाश करने के लिए होता है। जब जैसी आवश्यकता होती है उसी अनुसार मैं अवतरित होता हूं।
प्रश्न 64. गुरुदेव ! आपने अवतार भारत में ही क्यों लिया, प्रहलाद पंथी जीव तो पूरे विश्वभर में है ?
उत्तर – रणधीर ! अवतार तो एक स्थान पर ही लिया जाता है परन्तु कारण अनेकों होते हैं जैसे- प्रहलाद को दिया हुआ वचन, यशोदा व नन्द को दिया हुआ वचन। मैंने इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही यहां पर अवतार लिया।
प्रश्न 65. गुरुदेव ! प्रहलाद पंथी जीव क्या भारत में ही है ?
उत्तर – रणधीर ! प्रहलाद पंथी जीव विश्वभर में है।
प्रश्न 66. गुरुदेव ! उन जीवों को कैसे मुक्त करते है ?
उत्तर – रणधीर ! मैं उन जीवों को दर्शन देकर पवित्र करता हूं और जो मानव रूप में है उनको ज्ञान-ध्यान के द्वारा शुभ कर्म करवाकर मुक्त करता हूं।
प्रश्न 67. गुरुदेव ! आपने प्रहलाद पंथी जीवों की खोज कब प्रारम्भ की?
उत्तर – रणधीर ! जिस समय मैंने गौ चारण लीला प्रारम्भ की उसी दिन से जीवों की खोज प्रारम्भ करदी सब से पहले मैं आंख मिचौनी खेल • खेलता हुआ सुतल लोक में राजा बलि के पास चार लाख जीवों का उद्धार किया ।
प्रश्न 68. गुरुदेव ! क्या बारह करोड़ जीव सभी मानव के रूप में है ?
उत्तर- रणधीर ! सब जीव मानव योनि में नहीं है सारे जीव अलग-अलग देशों में अलग-अलग योनियों में है और कुछ जीव अभी तक जन्में नहीं है। जब उनका जन्म होगा तब उनको पार करके संसार से वापस बैकुण्ठ चला जाऊंगा।
प्रश्न 69. गुरुदेव ! जब आपने पंथ प्रारम्भ किया तो सबसे पहले बिश्नोई कौन बना और शर्त क्या रखी ?
उत्तर – रणधीर सबसे पहले पुल्होजी बिश्नोई बने और उन्होंने स्वर्ग दिखलाने की शर्त रखी तब मैंने पुल्होजी को स्वर्ग दिखाकर पंथ प्रारम्भ किया ।
प्रश्न 70. गुरुदेव ! आपके अवतारों में से मुख्य-मुख्य अवतारों को बतलाने की कृपा करें ?
उत्तर – रणधीर मेरे अवतारों को सुन- सबसे पहले मच्छ का अवतार लेकर राजा सत्यव्रत को ज्ञान का उपदेश देकर मुक्त किया। दूसरा कच्छप अवतार लेकर देवताओं की सहायता से अमृत निकाला। तीसरा वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष se पृथ्वी का उद्धार किया। चौथा नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप se प्रहलाद की रक्षा की।
पांचवे वामन अवतार में बलि राजा से तीन पग धरती मांगकर सम्पूर्ण पृथ्वी को ले लिया। छठा परशुराम अवतार लेकर इक्कीस बार पृथ्वी से भार उतारा। सांतवी बार श्रीराम अवतार लेकर रावण का किया। आंठवे श्री कृष्ण अवतार में अनेकों प्रकार की लीलाएं की। नवां बुद्ध अवतार लेकर पांखड का नाश धर्म पर चलने का उपदेश दिया। अब दसवीं बार तेरे सामने जाम्भोजी के रूप में अवतार लेकर आया और धर्म का उपदेश देकर बिश्नोई पंथ चलाया।
प्रश्न 71. गुरुदेव ! क्या शब्दावाणी पढ़ने मात्र से पाप मिट जाते है ?
उत्तर– रणधीर ! शब्दवाणी तो जीवन के मल को धोकर जीवों को भवसागर से पार कर देती है।
प्रश्न 72. गुरुदेव ! क्या शब्द हमेशा पढ़ने चाहिए ?
उत्तर– रणधीर शब्दों को हमेशा अवश्य पढ़ने चाहिये जिससे सभी प्रकार के रोग, शोक मिट जाते है। बन्धन कट जाते हैं और आदि-व्यादि का बन्धन भी कट जाता है।
प्रश्न 73. गुरुदेव ! बिश्नोई पंथ चलाने के बाद आपके पास कौन-कौन लोग आते थे ?
उत्तर – रणधीर पंथ चलाने के बाद मेरे पास आने वाले लोगों में शासन करने वाले राजा, राज्यमंत्री, राजसेवक, राजकर्मचारी व्यवसाय करने वाले व्यापारी, धनी–मानी, किसान, पशुपालक, ब्राह्मण, भाट चारण, ज्योतिषी आदि अनेकों लोग अपनी अपनी शंका समाधान करवाने आते थे।
प्रश्न 74. गुरुदेव ! आपके अवतार की गणना शास्त्रों में तो नहीं है ?
उत्तर– रणधीर मेरे विषय में मैं स्वयं प्रमाण हूं शास्त्रों की रचना तो आवश्यकता अनुसार में स्वयं करता हूं। मेरे शब्द ही शास्त्रों का सार के संग्रह है।
प्रश्न 75. गुरुदेव ! आगे आपने क्या किया वर्णन करें ?
उत्तर – रणधीर संवत् १५४२ में कार्तिक वदी अष्टमी के दिन पाहल देकर बिश्नोई पंथ प्रारम्भ किया जो आज तक चल रहा है और आगे भी जो श्रद्धापूर्वक बिश्नोई बनना चाहता हो उसको भी पंथ में मिला लेना चाहिए। बिश्नोई पंथ में मिलने पर वो जीव हिंसा नहीं करेंगे।
प्रश्न 76. भगवन् आपके पास जो राजा आये वे पंथ चलाने के पहलेआये या बाद में ?
उत्तर- रणधीर ! संसार के लोग स्वार्थी होते हैं। इन राजाओं को जब-जब जो जो जरूरत पड़ती ये मेरे पास दौड़े आते हैं। पंथ चलाने से पहले भी आते थे और बाद में भी परन्तु आते स्वार्थ से बिना स्वार्थ के सांसारिक लोग बात तक नहीं करते।
प्रश्न 77. भगवन् ! राव जोधा राज्य स्थिर हो जाने के बाद क्या आपके पास आया ?
उत्तर-हां रणधीर ! राव जोधा राज्य स्थिर हो जाने के बाद कई बार मेरे पास आया और आशीर्वाद लिया। मेरे पास और भी राजा आशीर्वाद के लिए आते जिसमें राव दूदा, राव जोधा, राव बीका, राव सूजा, राव गंगा और राव मालदेव आदि मेरे पास जो कोई आता है वह कुछ न कुछ अवश्य प्राप्त करता ।
कई आशीर्वाद, कई ज्ञान की बाते, तो कई मेरे दर्शन से ही कृतार्थ हो जाते हैं क्योंकि मेरे दर्शन से सभी प्रकार के संशय मिट जाते हैं और वैराग्य हो जाता है, वैराग्य से अपनी आत्मा का दर्शन हो जाता है। आत्म दर्शन ही सर्वोत्तम कार्य है।
प्रश्न 78. गुरुदेव ! राव जोधा को आपने बैरिसाल नगाड़े क्यों दिये ?
उत्तर- रणधीर राव जोधा अपने पुत्र दूदा व भतीज उद्धरण से मेरी महिमा सुनकर मेरे पास आया और बोला- भगवन् ! ऐसी कृपा करो जिससे मेरा राज्य स्थिर हो जाय। तब मैंने दो नगाड़े दिये और कहा- इन नगाड़ों के बजने से जहां तक आवाज जायेगी, वहां तक आपके शत्रु ठहर नहीं पायेंगे। राजा ने अपनी सीमा में उन नगाड़े की आवाज करवा दी जिससे उसका राज्य स्थिर हो गया।
प्रश्न 79. गुरुदेव ! इन नियमों का पालन करने से क्या मिलेगा ?
उत्तर – रणधीर इन नियमों का पालन करने से जब तक संसार में रहेंगे सुखपूर्वक जीवनयापन होगा और मरने के बाद बैकुण्ठ में जाऐगे।
प्रश्न 80. गुरुदेव ! आपने लोगों को अन्न तो बांटा पर ज्ञान नहीं दिया क्या ?
उत्तर- रणधीर ! जब उन लोगों को अन्न की जरूरत थी तब उन लोगों को अन्न दिया जिससे लोगों का जीवन सुखपूर्वक बीता। जब लोग अकाल की मार से पार हो गये तब उनको ज्ञान के बारे में बताया भूखों को अन्न चाहिए ज्ञान नहीं, ज्ञान तो भूख मिटने के बाद ही समझ में आता है।
प्रश्न 81. गुरुदेव ! आपने जो अन्न बांटा वो अन्न कहां से लाए ?
उत्तर- रणधीर मुझे कोई भी वस्तु लाने में विचार करने की जरूरत नहीं पड़ती मेरी इच्छा मात्र से तो ब्रह्माण्ड की रचना हो जाती है, मेरी इच्छा मात्र से ही समराथल धोरे पर बाजरे की ढेरी लग गई। सारे लोग उस ढेरी में से बाजरी ले जाने लगे। जिसको घास की आवश्यकता होती वो घास ले जाते अर्थात् मेरे पास अखूट भण्डार है। अन्न, धन, ज्ञान, भक्ति और मोखा, मोह पे राजे पांचू थोका। इण चीजो का भरिया भण्डारा, चाहो सो आवो जम्भद्वारा ।
प्रश्न 82. गुरुदेव ! यदि आगे चलकर थापन संस्कार करना छोड़ दे तो उस समय लोगों का क्या कर्तव्य है ?
उत्तर – रणधीर ! यदि थापन संस्कार करना छोड़ दे तो शुद्ध कोई भी बिश्नोई व्यक्ति सहर्ष पाहल बनाकर के संस्कार कर सकते हैं। विचारवान इस विषय में सबको पूरा अधिकार है पर ध्यान रखने की बात है कि अपने घर में अपने आप संस्कार न करे। बिश्नोई के घर तीनों संस्कार जन्म, विवाह और अन्य बिश्नोई ही करे ओर से न करवाये क्योंकि बिश्नोई को संस्कार करने का पूरा अधिकार है कहने की आवश्यकता ही नहीं है।
जिसके घर में सूतक पातक न हो उससे संस्कार करवाना चाहिए। एक-दूसरे का संस्कार करते हुए संस्कार की परम्परा को कायम रखना जरूरी है क्योंकि संस्कार के बिना व्यक्ति शुद्ध नहीं होता। बिश्नोई विश्व शांति का दूत है। विश्व में शांति स्थापित करने के लिए एकमात्र बिश्नोई ही है जो पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए जीवों की रक्षा करते है।
प्रश्न 83. गुरुदेव ! विशेषकर संस्कार करने का अधिकार किसको है ?
उत्तर- रणधीर ! संस्कार करने का कार्य मैंने बिश्नोइयों को ही सौंपा है। जो बिश्नोई तीनों संस्कार करता है वह कलश की स्थापना करने से वे थापन कहलाते हैं। जबकि थापन नाम का कोई अलग वर्ण नहीं है। थरपना करने से इनका नाम थापन पड़ गया है पर थापन बिश्नाई ही है।
प्रश्न 84. गुरुदेव ! आपके मंत्र के बारे में सुनकर लोगों ने क्या जानना चाहा ?
उत्तर – रणधीर ! लोगों ने कलश पूजा व पाहल के बारे में विस्तारपूर्वक जानना चाहा तब मैंने उनको समझाते हुए इस प्रकार कहा – धार्मिक विचार रखने वाले दो आदमी मिलकर कलश स्थापना करे। एक आदमी कलश पर हाथ रखे व दूसरा कलश पूजा मंत्र पढ़े। इन दोनों में से कोई भी व्यक्ति व्यसन करने वाला न हो तथा दोनों ही बिश्नोई जाति के हो।
जो व्यक्ति बिश्नोई नहीं है वे तीनों संस्कार नहीं कर सकते क्योंकि बिश्नोइयों का संस्कार गैर बिश्नोई नहीं कर सकते। यदि कोई करता है तो बिल्कुल गलत व संस्कार का खिलवाड़ माना जायेगा।
प्रश्न 85. गुरुदेव ! आपके मंत्र कहां-कहां काम आयेंगे ? रणधीर ! मेरे मंत्र सब प्रकार के दुःख मिटाने के काम आयेंगे।
उत्तर – जैसे- भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, रोग, शोक, व्याधि, घाटा आदि कोई भी समस्या क्यों न हो मेरे मंत्र सारी समस्याओं को ठीक करते हैं। अतः विश्वासपूर्वक शब्दवाणी का कोई भी शब्द सिद्ध करके प्रयोग में लाने से सहज रूप से कार्य सिद्ध होता है।
प्रश्न 86. गुरुदेव ! मंत्र कौन-कौन से है ?
उत्तर- रणधीर ! मंत्र निम्न प्रकार से है – कलश पूजा मंत्र, पाहल मंत्र, बालक मंत्र, सुगरा मंत्र, पाहल देने का मंत्र साधु दिक्षा मंत्र, तारक मंत्र, निवण मंत्र और मेरे द्वारा उच्चारित शब्द महामंत्र है। उनमें से किसी भी मंत्र को सिद्ध करके उनका अनुष्ठान करने पर वह अपना प्रभाव दिखाता है।
प्रश्न 87. गुरुदेव ! आगे आपने किस प्रकार से उपदेश किया सो बताईये ?
उत्तर – रणधीर आगे लोगों ने संस्कार व मन्त्रों के बारे में पूछा उसका उत्तर मैंने इस प्रकार दिया- जब किसी प्रकार के संस्कार की आवश्यकता हो तब यज्ञ करे। यज्ञ के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व के बीच की दिशा) में कलश स्थापित करें और प्रेमपूर्वक शब्दवाणी का पाठ करते हुए यज्ञ में स्वाहा के साथ आहुति दे।
जब यज्ञ की आहुति पूर्ण हो जाये तब कलश की स्थापना करे। एक व्यक्ति का हाथ रखवाकर दूसरा व्यक्ति कलश मंत्र पढ़ते हुए कलश स्थापना करे फिर माला कलश में घुमाते हुए पाहल मंत्र पढ़े। जब पाहल बनकर तैयर हो जाए तब आरती बोलकर पूर्णाहुति लगाकर विष्णुमंत्र बोलते हुए पाहल देना प्रारम्भ दे।
प्रश्न 88. गुरुदेव ! लोग विशेषकर क्या चाहते हैं ?
उत्तर – रणधीर ! लोग विशेषकर लौकिक सुख-सुविधाएं चाहते हैं। वे परमार्थ के बारे में तो कुछ जानते ही नहीं है।
प्रश्न 89. गुरुदेव ! क्या आप उन सबकी शंका दूर करते थे ?
उत्तर – रणधीर शंका की तो बात ही क्या में सभी प्रकार की कामनाएं भी पूरी करता हूं। मेरे दर्शन मात्र से ही अनेकों प्रकार की शंकाओं का समाधान हो जाता है।
प्रश्न 90. गुरुदेव ! पुरोहित को उपदेश देने के बाद आपने क्या किया?
उत्तर – रणधीर ! पुरोहित को समझाकर काजी को उपदेश दिया (सुणरे काजी सुण रे मुल्ला) हे काजी कर्तव्य की बात सुन अरे ! मुल्ला बात को ध्यान देकर सुन (सुणरे बकर कसाई) बकरों को मारने वाले मेरी बात सुन (किरणी थरपी छाली रोसो) किसकी उत्पन्न की हुई बकरी को रोसते हो (किणरी गाडर गाई) इन सभी भेड़, बकरी, गायों को उत्पन्न करने वाला कौन है (सुल चुभीजे करके दुहैली) अरे कांटा चुभने पर भी बड़ा भारी दर्द होता है।
प्रश्न 91. प्रभु ! शोभाराम जाट ने आकर क्या कहा ?
उत्तर– रणधीर ! एक दिन शोभाराम नाम का एक जाट आया और बोला- आप विष्णु जप करने के लिए कहते है परन्तु जप नहीं करने पर क्या हानि होगी। मैं भोपों को दान देता व भूतों का जप करता हूं। तब मैंने उससे यह शब्द सुनाया – ( काय रे मुर्खा ते जन्म गुमायो भूय भारी ले भारु) अरे मूर्ख तुमने तो जन्म व्यर्थ खो दिया। जीवत रहने तक पृथ्वी को अपने पाप से भार ही मारा।
(जा दिन तेरे होम नै जप नै तप नै किरिया) जिस दिन तुमने यज्ञ, जप, तप, कारण क्रिया का पालन नहीं किया और (गुरु न चीन्हो पंथ न पायो अहल गई जमवारु) गुरु को नहीं पहचाना पंथ को प्राप्त नहीं किया उस दिन तेरा जन्म व्यर्थ ही गया (ताती बेला ताव न जाग्यो) युवा अवस्था में जगकर धर्म कर्म नहीं किया।
(ठाडी बेला ठारु) प्रोढ़ अवस्था में भी धर्म कार्य नहीं किया। (बिम्बै बैला विष्णु न जप्यों) वृद्धावस्था में भी सन्तोषपूर्वक बैठ कर विष्णु का जप नहीं किया (तातै बहुत भई कसवारु) इसलिए बहुत बड़ी हानि होगी और कष्ट उठाना पड़ेगा।
(खरी न खाटी देह बिणाठी) सत्य को तो समझा नहीं शरीर नष्ट हो गया क्योंकि (थिर न पवणा पारु) पवन, पानी आदि कुछ भी स्थिर रहने वाला नहीं है। (अहनिश आव घटती जावै) दिन-रात करके आयु घट रही है। (तेरे स्वास सब ही कसवारू) तेरे सारे श्वास व्यर्थ जा रहे है। (जा जन मंत्र विष्णु न जप्यों ते नगरे कीर कहारू) जिस मानव ने विष्णु मंत्र का जप नहीं किया वे नगरों में नौकर बनकर पानी भरेंगे।
(जा जन मंत्र विष्णु न जप्यों कांध सहै दुःख भारू) जो जीव नर तन धारण करके विष्णु का जप नहीं करता वह दूसरे जन्म में कन्धे पर भार का दुःख सहन करेगा। (जा जन मंत्र विष्णु न जंप्यो ते घण तण करै अहारु) जिस किसी ने मानव बनकर विष्णु मंत्र का जप नहीं किया उसको अधिक आहार करने वाला जन्म मिलेगा, जिसका कभी भी पेट नहीं भर पायेगा। (जा जन मंत्र विष्णु न जप्यों ताको लोही मांस बिकारु) जिसने विष्णु मंत्र का जप नहीं किया उसके शरीर में अनेक प्रकार की बीमारियां होगी।
(जा जन मंत्र विष्णु न जप्यों गावे गाडर सहरे सुवर जन्म-जन्म अवतारू) जिसने मानव बनकर विष्णु का जप नहीं किया उस जीव को गांवों में जन्म लिया तो भेड़ का और शहरों में जन्म होगा तो सुवर का (जा जन मंत्र विष्णु न जप्यो ओडा के घर पोहण होयसी पीठ सहै दुःख भारू) जिस जीव ने विष्णु नाम का जप नहीं किया उसको ओडों (कुम्हारों) के घर में जन्म मिलेगा जो पीठ पर हमेशा भार लदा ही रहेगा।
(जा जन मंत्र विष्णु न जप्यों राने बासो मौनी वैसे दूकै सूर सवारू) विष्णु नाम का जप न करने से अगले जन्म में सफेद डोढ़ की योनि मिलेगी। वो प्रातःकाल गंदगी पर चोंच मारेगा। (जा जन मंत्र विष्णु न जप्यों ते अचल उठावत भारू) जिसने विष्णु का जप नहीं किया उस जीव को अचल भार वहन करना पड़ेगा।
(जा जन मंत्र विष्णु न जप्यों ते न उतरिबा पारू) जो कोई भी जीव मानव जीवन में आकर विष्णु के नाम का जप नहीं करेगा तो संसार सागर से पार नहीं हो सकता। (जा जन मंत्र विष्णु न जप्यों ते नर दौरे धुप अधारु) विष्णु के जप के बिना अन्धकारमय नरकों में गिरेगा (ताते तंत न मंत न जड़ी न बूटी उंडी पड़ी पहारू) विष्णु जप के बिना तंत्र मंत्र जड़ी बूंटी कोई भी काम नहीं आऐंगे।
मानव तन से दूर पड़ जाऐंगे। (विष्णु न दोष किसो रे प्राणी तेरी करणी का उपकारू) इसमें विष्णु भगवान का क्या दोष है। अपनी करणी का ही फल मिलता है। अतः हे शोभाराम ! तेरा जप तप सेवा पूजा सब तामसी है इसलिए तामसी पूजा नरक में ही ले जाएगी। परम पद चाहता है तो मन लगाकर विष्णु मंत्र का जप कर।
प्रश्न 92. गुरुदेव ! कौनसा संस्कार किस समय करवाना चाहिए ?
उत्तर – रणधीर ! जन्म संस्कार बालक के जन्म के तीसवें दिन नशे पते से रहित पवित्र बिश्नोई के द्वारा करवाना चाहिए। सुगरा संस्कार जब बच्चे १०- २० वर्ष के लगभग हो जाये तब योग्य बिश्नोई संत द्वारा करवाना चाहिए। विवाह संस्कार पवित्र बिश्नोई गृहस्थ से ही करवाना चाहिए। अन्य संस्कार भी गृहस्थ बिश्नोई के द्वारा करवाना चाहिए।
प्रश्न 93. गुरुदेव! आपने पुरोहित व काजी को किस उद्देश्य से उपदेश दिया ?
उत्तर- रणधीर । एक दिन बीकानेर का राजा लूणकरण नागौर गया। वहां मोहम्मद खां से बातचीत चली तब लूणकरण ने कहा जाम्भोजी हिन्दुओं के देव है परन्तु मोहम्मद खां ने कहा कि नहीं वो मुसलमानों के पीर है। दोनों ने अपनी-अपनी बात सिद्ध करने के लिए अपने-अपने पुरोहित व काजी को मेरे पास भेजा तब मैंने पुरोहित को पास बिठाकर यह शब्द सुनाया (हिन्दु होय कर हरि क्यूं न जप्यों) अरे भाई हिन्दु होकर विष्णु का जप क्यों नहीं किया।
(काय दहदिश दिल पसरायो) क्यों मन को दसों दिशाओं में भटकाया। मन को स्थिर करना था सो तो किया नहीं (सोम अमावस आदितवारी काय काटी बन रायो) और सूर्य-चन्द्रमा के रहते तथा इन दोनों के अभाव में अमावस्या के दिन हरे वृक्ष क्यों काटे (गहण गहतै वहण बहतै निर्जल ग्यारस मूल बहते, काय रे मूखति पालंग सेज निहाल बिछाई) ग्रहण के समय रास्ते में चलते समय, एकादशी के दिन, मूल नक्षत्रों के समय तुमने गृहस्थ व्यवहार क्यों किया (जां दिन तेरे होम न जप न तप न क्रिया) इन दिनों में तो तुम्हें यज्ञ, जप, तप आदि उत्तम क्रिया करनी चाहिये थी।
(जाण के भागी कपिलागाई) शुभ कर्म रूपी कामधेनू गाय को जान-बुझकर घर से निकाल दिया। (कुड़ तणो जे करतब कियो नाते लाव न सायो) झूठ कपट करके उल्टा कर्तव्य किया उसमें लाव साव को नहीं देखा (भूला प्राणी आलबखाणी) भूल में पड़कर व्यर्थ की बातें करता. रहा (न जप्यो सुर राय) देवताओं का स्वामी जो परम पिता परमात्मा है उसका जप नहीं किया (छन्दे कहां तो बहुता भावे) आत्म प्रशंसा हमेशा मीठी लगती है (खरतर को पतियायो) खरी बात को सुनना न चाहा (हिव की बेला हिव न जाग्यो शंक रहयो कदरायो) जगने के समय जगा नहीं मन में शंका को स्थान देकर शंकाकुल होता रहा।
(ठाडी बेला ठार न जाण्यो ताती बेला तायो) बालपन में भगवान की और लगा नहीं और जवानी में सत्य को समझा नहीं। (बिम्बे बेला विष्णु न जप्यो ताछे का चिन्हो कछु कमायो) वृद्धावस्था में भी हरि जप नहीं किया तो समझो कुछ भी जीवनोपयोगी कार्य नहीं किया। (अति आलस भोला वे भूला न चीन्हो सुररायो) आलस्य के कारण भूल कर भी विष्णु का भजन नहीं किया। (पारब्रह्म की शुद्ध न जाणी) परमतत्व को नहीं जाना और न परमात्मा की शुद्ध बुद्ध ली।
(तो नागे जोग न पायो) तो समझो तुम्हारा योग केवल रहने से सिद्ध नहीं होगा। (परशुराम के अर्थ न मुवा) यदि भगवान के अधीन अपना आपा नहीं तो (ताकि निश्चै सरी न कायो) निश्चय ही कार्य सिद्ध नहीं होगा। अतः केवल हिंदू के घर जन्म लेने से क्या होगा कार्य तो सत्य पर चलने से होगा। जसने सत्य को आत्मसात कर लिया वह ही हिन्दू है और मैं उसका देवता हूं।
प्रश्न 94. गुरुदेव ! वे सन्त कब आयेंगे ?
उत्तर- रणधीर ! उसका जन्म अब हुआ है पर मेरे परमधाम जाने के कुछ वर्षों बाद समाज की कुरीतियों को मिटाकर मार्ग पर लायेंगे। जो उनकी आज्ञा नहीं मानेंगे उसको मारपीट कर धर्म मार्ग पर लायेंगे। संत जो कुछ करते हैं वह समाज के हित के लिए करते हैं। उनका कोई भी निजी स्वार्थ नहीं होता। समाज का हित ही सन्तों का हित है क्योंकि संत समाज के रखवाले हैं।
प्रश्न 95. गुरुदेव ! तीनों संस्कारों के साथ क्या चौथा सुगरा संस्कार भी बिश्नोई कर सकता है ?
उत्तर – रणधीर ! तीन संस्कार तो बिश्नोई कर सकते है पर सुगरा संस्कार तो एकमात्र बिश्नोई संत ही कर सकते है। दूसरों का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि संत मेरा ही रूप है। मेरे और सन्तों में जो चेतन सत्ता है वो एक ही है क्योंकि संत मेरा चिन्तन करने वाले हैं।
जो कोई मेरा चिंतन करता है उनको विशेष अधिकार है। मेरे बाद में इस बिश्नोई समाज के स्वामी केवल संत ही होंगे। दूसरे संतों के सेवक माने जायेंगे। संतों की आज्ञा से समाज की सेवा करेंगे। संतों में स्वार्थ की भावना नहीं होती है इसलिए समाज की नीति का निर्माण संत ही करेंगे। जो नियम संत बना दे उस नियम को समाज अवश्य मानेंगी यह मेरा आदेश है। मेरे बाद एक ऐसा सन्त आयेगा जो नियमों का विस्तार करेगा।