यहाँ हम समराथल धोरा के बारे में बात करेंगे और Samrathal Dhora के बारे में विस्तार से जानेगे, तथा समराथल धोरे के बारे में जो भी इतिहास है उसे जानने का प्रयास करेंगे।
समराथल धोरे से bishnoi samaj का जुड़ाव बहुत गहरा है, क्योंकि समराथल धोरे पर गुरु जांभोजी 51 वर्ष तक मानव कल्याण हेतु लोगों को ज्ञान का उपदेश दिया।
मुकाम में लगने वाले मेलों के समय लोग प्रातः काल यहां पहुंचकर हवन करते हैं और पाहळ ग्रहण करते हैं।
Samrathal Dhora (समराथल धोरा)
समराथल धोरा का बिश्नोई समाज में बहुत अधिक महत्व है यहां पर गुरु जांभोजी ने तपस्या की थी तथा बिश्नोई पंथ की स्थापना भी समराथल धोरा से ही की थी।
गुरु जांभोजी ने समराथल धोरा पर लोगों को उपदेश दिया तथा 29 नियमों पर चलने को कहा, गुरु जांभोजी ने 29 नियम के दीक्षा देकर बिश्नोई पंथ की स्थापना की।
समराथल धोरा बीकानेर जिले के नोखा तहसील में है। समराथल मुकाम से 2 किलोमीटर दक्षिण में है तथा पीपासर से लगभग 10 से 12 किलोमीटर उत्तर में है। बिश्नोई पंथ में समराथल का अत्यधिक महत्व है।
Samrathal Dhora History (समराथल धोरा इतिहास)
यह स्थान गुरु जांभोजी का प्रमुख उपदेश स्थल है। जैसा की हमने यहाँ बताया कि यहाँ गुरु जांभोजी 51 वर्ष तक मानव कल्याण हेतु लोगों को ज्ञान का उपदेश दिया।
विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करने के बाद गुरु जंभोजी यहीं आकर निवास करते थे। यहां वह स्थाई रूप से 51 वर्ष तक निवासरत रहे। संवत 1542 में इसी स्थान पर गुरु जांभोजी ने अपने अलौकिक शक्ति से अकाल पीड़ितों की सहायता की थी।
गुरु महाराज जांभोजी ने अपने माता पिता के स्वर्गवास के बाद समराथल धोरा पर आसन लगाया और वहां रहने लगे थोड़े समय के बाद भयंकर अकाल पड़ा उसकी वजह से वहां से लोग बहुत परेशान हो गए और इधर-उधर जाने लगे तब गुरु महाराज को बहुत चिंता हुई, उन्होंने अपनी दिव्य शक्ति से लोगों की सहायता की और लोगों के लिए अन्य और जल की व्यवस्था की, और लोग आस-पास वहीं रुक गए तब गुरु महाराज ने लोगों को अच्छे अचार संस्कार सिखाएं।
अपने दिव्य वाणी से उपदेश देने लगे फिर कुछ समय बाद गुरु महाराज जांभोजी ने बिश्नोई पंथ की स्थापना जनकल्याण का संकल्प लिया, और 1542 ईसवी में कार्तिक बदी अष्टमी को समराथल धोरे पर कलश की स्थापना करके लोगों को पाहल देकर Bishnoi बनाया और बिश्नोई पंथ में दीक्षित किया।
सबसे पहले गुरु महाराज ने अपने चाचा पुलहोजी को पाहल देकर बिश्नोई पंथ में दीक्षित किया, बिश्नोई पंथ में दीक्षित होने का यह काम अष्टमी से लेकर अमावस्या तक होता है, इस पंथ में बिना किसी भेदभाव के सभी जातियों के लोग दीक्षित हुए।
मिट्टी लाने की परंपरा
सम्भराथल को सोवन नगरी, थला, थल एवं संभरि आदि नामों से भी पुकारते हैं। इसका प्रचलित नाम धोक धोरा है। सम्भराथल धोरे की सबसे ऊंची चोटी पर, जहां बैठकर गुरु जाम्भोजी उपदेश देते थे और हवन करते थे, वहां पहले एक गुमटी थी और अब एक सुन्दर मन्दिर बना दिया गया है और साथ ही पूर्व दिशा में नीचे उतरने के लिये पक्की सीढ़ियां बना दी गई है।
इस मन्दिर के निर्माण में ब्रह्मलीन स्वामी चन्द्रप्रकाश जी व ब्रह्मलीन स्वामी रामप्रकाश जी का विशेष योगदान रहा था। वर्तमान में सम्भराथल पर इन्हीं संतों की परम्परा के दो आश्रम हैं।
सम्भराथल के पूर्व की ओर नीचे तालाब बना हुआ है, यहां से लोग मिट्टी निकालकर आस-पास ‘पालों’ पर डालते हैं और कुछ मिट्टी ऊपर लाकर डालते हैं। कहते है कि यहीं से गुरु जाम्भोजी ने अपने पांचो शिष्यों खीया, भीया, दुर्जन, सेंसो और रणधीर जी को सोवन नगरी में प्रवेश करवाया था।
अब लोगों द्वारा वहां से मिट्टी निकालने के पीछे सम्भवतः एक धारणा यह है कि शायद सोवन नगरी का दरवाजा मिल जाय और वे उसमें प्रवेश कर जायें।
मुकाम-समराथल गौशाला
सम्भराथल और मुकाम के बीच में बनी हुई पक्की सड़क पर समाज की एक बहुत बड़ी गौशाला है, जो समाज की गो-सेवा की भावना की प्रतीक है।
यहां पर गौ माता की सेवा की जाती है तथा यहां पर बहुत अधिक मात्रा में गोवंश नेत्रहीन है जो देख नहीं सकते, आसपास में जो भी गोवंश जख्मी होता है, या किसी बीमारी से ग्रसित होता है तो उसे यहां लाकर उसका संपूर्ण इलाज किया जाता है तथा उसकी सेवा की जाती है।