Bishnoi Sandhya Mantra | बिश्नोई संध्या मंत्र और भावार्थ

बिश्नोई समाज में Sandhya Mantra का बहुत ही महत्व है, तथा संध्या मंत्र का उच्चारण हर एक बिश्नोई को करना अनिवार्य बताया गया है।

यहां पर आपको संध्या मंत्र दिया गया है आप इधर संध्या मंत्र को पढ़ सकते हैं तथा इसके साथ इसका भावार्थ भी दिया गया है जिसे भी आप समझ सकते हैं कि संजय मंत्र के माध्यम से गुरु जांभोजी आपको क्या संदेश दे रहे हैं।

Sandhya Mantra

यहां पर बिश्नोई समाज के संध्या मंत्र को पूर्ण रूप से बताया गया है –

ओ३म् विसंन विसंन तूं भणिरे प्राणी, साधां भक्तां उधरणौं ।
देवला सह दानूं दास्य दानूं, मदसूं दानूं महम हंणों ।
चेतो चित जांणी सारंग पाणी, नादे वेदे निज रहणौं ।
आदि विसन बाराहूं, दाढ़ापति धर उधरणौं ।
लिछमी नारायण निहचल, थाणों थिर रहणों ।
निमोह निपाप निरंजन सांमी, भणि गोपालूं त्रिभुवन तारूं भणतां गुणता पाप खयौ ।
तिह तूठे मोख मुगति ज लाभै, अवचल राजूं खाफर खानूं खै गुवणौं ।
चीते दीठै मिरघ तरासै, बाघां रोलै गऊ तरासै तीर पुल्यै गुण बाण हयौ ।
तपति बूझै धारा हरि बूटै, यों विसन जयंता पाप खयौ ।
ज्यौं भूख को पालन अन्न अहारूं, विष को पालन गरूड़ दवारूं ।
कांही कांही पखेरवां सीचांण तरासै, विसंन जयंता पाप विणासै ।
विसनुं ही मन विसनु भणियो, विसनुं ही मन विसनुं रहियौ ।
इकवीस कोड़ि बैकुण्ठ पहोंता, साचै सतगुरु का मन्त्र कहियों ।

संध्या मंत्र का भावार्थ

ओ३म् विसंन विसंन तूं भणिरे प्राणी, साधां भक्तां उधरणौं ।

भावार्थ – श्री गुरु जम्भेश्वरजी ने जितने भी शब्द श्री मुख से कहे वे सभी किसी न किसी को निमित बना करके ही कहे हैं। यह संध्या मंत्र भी अपनी बुआ तांतू के प्रति कहा है तथा बाल्यावस्था में ही उच्चारण किया है। हे तांतो बुआ ! तूं इस शरीर से तो पिता की बहिन होने से बूआ लगती है किन्तु शरीर से प्राणों का संचार होने से तू प्राणी है इसलिये प्राणी होने से तेरा कर्त्तव्य बनता है कि जो तुम्हारे प्राणों का आधार सर्वेश्वर भगवान विष्णु है।

उसका जप कर अर्थात् स्मरण ध्यान करते हुए उन महान प्राणों में अपने प्राण सम्मिलित कर। उस परमपिता परमात्मा विष्णु का भजन करते हुए अनेकानेक साधु तथा भक्तों का उद्धार हुआ है।

देवला सह दानूं दास्य दानूं, मदसूं दानूं महम हंणों ।

भावार्थ – भगवान विष्णु की महिमा अनन्त है, यथा समय देवता तथा दानव दोनों को ही अभिमान हो गया था उस अहंकार का विनाश किया तथा उसी प्रकार से अन्य किसी समय में जो भगवान के भक्त थे अर्थात् दास थे उनका भी अहंकार बढ़ गया था, उसका भी हनन किया। कभी-कभी दास भक्त भी दानव सदृश अहंकारी हो जाते हैं। तब परमात्मा उनका अहंकार निवृत करते हैं तथा मधु, कैटक आदि भयंकर राक्षसों के अहं का विनाशक एक परम विष्णु ही है।

चेतो चित जांणी सारंग पाणी, नादे वेदे निज रहणौं ।

भावार्थ – हे संसार के लोगों ! चेतो, हे बूआ ! तूं भी चेत अर्थात् सचेत हो जा, अब जागृत होने का सुअवसर आ चुका है तथा सावधान होकर उस धनुषधारी भगवान को बुद्धि तथा मन से ग्रहण धारण करो। वही परमेश्वर नाद ध्वनि तथा वेद के अन्दर समाया हुआ है अर्थात् अनहद नाद एवं वेद से ही वह विष्णु प्राप्त किया जा सकता है।

आदि विसन बाराहूं, दाढ़ापति धर उधरणौं ।

भावार्थ – आदि अनादि भगवान विष्णु ने सृष्टि के आदि में जब हिरणाक्ष ने इस धरती को जल में डूबा दिया था ठीक उसी समय में ही बाराह रूप धारण करके अपनी दाढ़ों पर धरती को रख कर उद्धार किया था तथा हिरणाक्ष को मार डाला था। वही विष्णु जपने योग्य है।

लिछमी नारायण निहचल, थाणों थिर रहणों ।

भावार्थ – इस संसार में अनेकानेक परिवर्तन होते हैं उस परिवर्तन की चपेट में देव, दानव, मानव आदि कोई भी स्थिर नहीं रह सकते किन्तु एक लक्ष्मी पति भगवान विष्णु ही स्थिर है उनका आसन कभी भी हिलता नहीं है क्योंकि वह देश काल जाति से परे है।

निमोह निपाप निरंजन सांमी, भणि गोपालूं त्रिभुवन तारूं भणतां गुणता पाप खयौ ।

भावार्थ – इस संसार के लोग उसे गोपाल के नाम से ही जानते हैं क्योंकि वह गोपालक श्री कृष्ण है। वह स्वयं तो मोह रहित है निष्पाप है माया रहित है।

सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी है किन्तु सभी का स्वामी होते हुऐ भी मान, मोह, माया रहित होना एक आश्चर्य ही है तथा तीनों लोकों में बसने वाले सदाचरण शील प्राणियों का उद्धार करने वाले भी वही है । उसी परमेश्वर का भजन स्मरण करने से अनेक जन्मों के संचित पापों का विनाश हो सकता है क्योंकि सामर्थ्यशाली तो वह एक ही है।

तिह तूठे मोख मुगति ज लाभै, अवचल राजूं खाफर खानूं खै गुवणौं ।

भावार्थ – उस परमात्मा के प्रसन्न हो जाने से मानव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। यह दिव्य अनुपम फल मिलता है । जिसके पास यह फल आ जाता है उसका राज्य परमात्म वैकुण्ठ लोक में अविचल – स्थिर हो जाता है। वह प्राणी जन्म-मरण के चक्कर अर्थात् चौरासी लाख जीवायोनी में नहीं आता, यही परम फल का सुस्वाद है।

चीते दीठै मिरघ तरासै, बाघां रोलै गऊ तरासै तीर पुल्यै गुण बाण हयौ ।
तपति बूझै धारा हरि बूटै, यों विसन जयंता पाप खयौ ।

भावार्थ – जिस प्रकार से चीते को देखकर हिरण भाग जाते है तथा बाघ की ध्वनि सुनकर गऊ भाग जाती है नहीं ठहर सकती तथा जिस प्रकार से धनुष की डोरी पर चढ़ा हुआ तीर छूटने पर आगे अपने लक्ष्य का वेधन अवश्य ही कर देता है, जब परमात्मा की अनुकंपा होती है तब आकाश में घटाएँ घिर आती है।

क्षण भर में ही महान गर्मी को अपनी बौछारों से शांत कर देती है, ठीक उसी प्रकार से भगवान विष्णु की अराधना जप करने से पापों का पलायन हो जाता है। जिस प्रकार से प्रकाश के आने से उस देश में अन्धकार नहीं टिक सकता, ठीक उसी प्रकार से ही विष्णु के सामने पाप कदापि नहीं ठहर सकते।

ज्यौं भूख को पालन अन्न अहारूं, विष को पालन गरूड़ दवारूं ।
कांही कांही पखेरवां सीचांण तरासै, विसंन जयंता पाप विणासै ।

भावार्थ – जिस प्रकार से अन्न खाने से भूख की निवृति हो जाती है अर्थात् भूख का शत्रु अन्न देवता है जो भूख का विनाश कर देता है तथा विशैले प्राणी जैसे सांप आदि का शत्रु गरूड़ है। अर्थात् गरूड़ को देखकर सांप भाग जाते हैं, एक साथ नहीं रह सकते, जहां गरूड़ जी रहेंगे वहां विष कदापि नहीं रह सकता।

कुछ छोटे-छोटे पक्षी चिड़िया आदि बाज पक्षी को देखकर छुप जाते हैं या भाग जाते हैं उसके सामने नहीं ठहर सकते। ठीक उसी प्रकार से भगवान विष्णु के सामने पाप नहीं ठहर सकते, यहाँ पर विष्णु बलवान है तथा पाप निर्बल है, यह शाश्वत नियम है कि सबल के सामने निर्बल कभी भी नहीं ठहर सकता ।

विसनुं ही मन विसनु भणियो, विसनुं ही मन विसनुं रहियौ ।

भावार्थ – हे मानव ! यदि तुम्हें इस संसार में आकर कुछ प्राप्ति करनी है तो केवल मात्र एक विष्णु का ही जप स्मरण-ध्यान करना तथा जीवन यापन भी विष्णुमय अर्थात् आनन्दमय होकर ही करना । अपने जीवन की कथनी और करनी में अन्तर नहीं रखना। जीवन में विष्णु को धारण करके कोई भी शुभ कार्य करेगा तो उसका फल अत्यन्त सुमधुर ही होगा।

इकवीस कोड़ि बैकुण्ठ पहोंता, साचै सतगुरु का मन्त्र कहियों ।

भावार्थ – हे तांतू! इस विष्णु महामन्त्र का स्मरण ध्यान करते हुऐ इक्कीस करोड़ प्राणियों का उद्धार हो चुका है। यही सच्चे सतगुरु का बताया हुआ महा मन्त्र है। इसलिये तूं भी इसी महामन्त्र का आश्रय ग्रहण कर, तेरा भी उन्हीं की तरह कल्याण हो जायेगा ।


विशेष – यह गुरु ‘जम्भेश्वर जी द्वारा उच्चरित यह संध्या मंत्र है। प्रात: सांयकालीन संध्या समय इसका उच्चारण करना हमारी परंपरा है तथा अति आवश्यक भी है। इस महामन्त्र में विष्णु का नाम स्मरण ही बतलाया है। केवल एक विष्णु के स्मरण से ही अन्य सभी राम कृष्णादि अवतारों का जप स्वत: ही हो जाता है क्योंकि ये सभी अवतार भगवान विष्णु के ही हैं। इसलिये सभी का मूल विष्णु ही है।

कुछ आधुनिक प्रतियों में “इकवीस ” के स्थान पर ” तेतीस ” पद भी आया है। यह काफी विवाद का विषय बन चुका है। मेरी दृष्टि में तो यहां पर इकवीस पद ही ठीक है । इसीलिये मूल पाठ में यहां पर यही शब्द रखा है। इसमें कारण यह है कि गुरु जम्भेश्वर जी ने यह मन्त्र अपनी बुआ तांतू के प्रति सुनाया उस समय जब बिश्नोई पन्थ की स्थापना हुई थी, तब तेतीस करोड़ पार कैसे पहुँच गये ? स्वयं गुरुजी ने कहा है कि- ‘आयो बारां काजै, बारां में सूं एक घटे तो सुचेलो गुरु लाजै । बारा थाप घणां न ठाहर ।’ इत्यादि अनेक स्थलों पर यही कहा है कि बारह करोड़ प्राणियों के उद्धार के लिये आया हूँ। तब यह बात स्पष्ट है कि तेतीस कैसे कह सकते हैं क्योंकि अब तक इक्कीस करोड़ का उद्धार करना ही कर्त्तव्य पूर्ण हुआ है। तब तेतीस करोड़ का उद्धार स्वयं जम्भेश्वर जी कैसे कह सकते हैं । यह बारह करोड़ उद्धार का कार्य तो अब करना है, यदि तेतीस का कहते हैं तो परस्पर विरोध उत्पन्न होता है। इसलिये तेतीस की जगह इक्कीस पद ही ठीक है तथा प्राचीन प्रतिलिपियों में भी ऐसा ही है। आधुनिक प्रतियों में कहीं प्रमादवश या अज्ञानता में यह तेतीस पद लिखा गया है।

इस बात का समर्थन साखियों में भी संत कवियों ने अनेक स्थानों पर किया है – बारा इकवीसां मिले, लंघे भवजल पार, बसती बारा इकवीसा मिले, हमारे गुरु भाई तथा अन्य साखियों में भी ऐसा ही अनेक जगहों पर स्पष्ट लिखा है।

यह संध्या मंत्र तथा इसका भावार्थ जम्भसागर (कृष्णानंद आचार्य, श्री बिश्नोई मंदिर, ऋषिकेश) से लिया गया है।

Leave a Comment