Muktidham Mukam (मुक्तिधाम मुकाम)

जब भी मुकाम(Mukam) का नाम सुनते है तो जाम्भोजी भगवान को हम याद करते है, बहुत से लोगो को तो पता होगा की मुकाम का इतिहास क्या है और मुकाम में मेला क्यों लगता है.

लेकिन आज भी बिश्नोई समाज के बहुत से लोग मुकाम का सही इतिहास नहीं जानते है, कि मुकाम बिश्नोई समाज से किस प्रकार जुड़ा हुआ है।

MuktiDham Mukam

हम जब भी बिश्नोई समाज के बारे में बात करते है तो हम हमारा सबसे पवित्र स्थल मुकाम को ही मानते है, और ज्यादातर लोग मुकाम (MuktiDham Mukam) के बारे में या उसका इतिहास नहीं जानते है।

इसमें कुछ हद तक उनकी गलती नहीं है क्योंकि मुक्तिधाम मुकाम के बारे में या अपने समाज के बारे में घरो में लोग बात ही नहीं करते और अपने बच्चो को अपने समाज और इतिहास और समाज के बारे में कुछ नहीं बताते।

मुकाम का इतिहास (History of Mukam)

मुकाम धाम बिश्नोई समाज के लिए एक महतवपूर्ण स्थल है, क्योंकि यहाँ पर गुरु जम्बेश्वर भगवान की पवित्र समाधी बनी हुई है।

मुकाम के बारे में कहा जाता है कि गुरु जाम्भोजी भगवान ने अपने स्वर्गवास से पूर्व समाधी के लिए खेजड़ी के वृक्ष की निशानी बताई, और कहा कि “खेजड़ी के पास24 हाथ खोदने पर भगवान शिव का त्रिशूल और धुना मिलेगा, वहां पर आप मेरी समाधी बनाये”

वह त्रिशूल और धूणा आज के मुकाम मंदिर में मिला जहा भगवान जाम्भोजी की समाधी बानी हुई है। और वह खेजड़ी भी अभी तक वहां है। जिसकी हम सभी जब भी मुकाम जाते है तब पूजा करते है।

हमारे पूर्वजो द्वारा हमें बताया जाता है कि जब जाम्भोजी भगवन ने अपनी देह का त्याग किया, उसके बाद जब तक वह त्रिशूल नहीं मिला जब तक जाम्भोजी की पार्थिव देह को लालासर साथरी कपडे में बांधकर खेजड़ी वृक्ष के द्वारा जमीन से ऊपर रखा गया। और तब तक सभी भक्तजन उनके पास बैठे रहते थे।

जब वह त्रिशूल और धूंणा मिला तब वहां पर भगवान जाम्भोजी की समाधी बनाई गई।

आज का मुकाम (Mukam)

आज के समय में गुरु जी की समाधी पर बने मंदिर का जीर्णोद्धार करके एक भव्य मंदिर बना दिया है। गुरु जी की समाधी पर बने मंदिर को निज मंदिर कहा जाता है। मुक्तिधाम मुकाम में वर्ष में फाल्गुन और आसोज की अमवस्या को दो मेले लगते है। जिसमे आने वाले श्रद्धालुओ की संख्या बहुत ज्यादा होती है।

फाल्गुन अमावस्या का मेला प्रारम्भ से ही चला आ रहा है, परन्तु आसोज मेला संत वील्होजी ने विक्रम सम्वत् 1648 में प्रारम्भ किया था। आजकल हर अमावस्या को बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचने प्रारम्भ हो गयें हैं । कई वर्षो से मुकाम में समाज की ओर सें निःशुल्क भण्डारे की व्यवस्था हैं। मुकाम में पहुंचने वाले सभी श्रद्धालु समाधि के दर्शन करते हैं और धोक लगाते हैं। सभी मेंलों पर यहां बहुत बड़ा हवन होता है जिसमेें कई मण घी एवं खोपरों से हवन में आहुति दी जाती है।

यहाँ पर आने वाले सभी श्रद्धालु पक्षियों को दाना डालते है जिसे वह हर दिन सुबह शाम चुगते है।

मुकाम के पास ही कुछ दुरी पर समराथल धोरा है जहा पर भगवन जाम्भोजी ने बहुत समय तक तपस्या की थी और जीव कल्याण का था। जो भी श्रद्धालु मुकाम जाता है वह समराथल धोरे पर जरूर जाता है और वहां पर धोक जरूर लगता है।

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